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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । (૨૭ अर्थ-स्थूल पदार्थको लक्ष्य रखनेवाले जिन प्रसिद्ध पुरुषोंने केवल रागरूप हेतुसे ऐसा कहा है। उनका कहना है कि प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही सविकल्पक हैं । ततस्तूर्ध्व तु सम्यक्त्वं ज्ञानं वा निर्विकल्पकम् । शुक्लध्यानं तदेवास्ति तत्रास्ति ज्ञानचेतना ॥ ९१५ ॥ अर्थ - प्रमत्तगुणस्थान से ऊपर सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही निर्विकल्पक होते हैं । वही शुक्लध्यान कहलाता है, और उसी अवस्थामें ज्ञानचेतना होती है । प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना । अस्तीति वासनोन्मेष केषाञ्चित्स न सन्निह ॥ ९९६ ॥ अर्थ - " प्रमत्त जीवोंको विकल्पात्मक होनेसे उनके शुद्ध चेतना नहीं हो सक्ती है ।" किन्हीं किन्हीं पुरुषोंके इस प्रकारकी वासना लगी हुई है, वह ठीक नहीं है । भावार्थजो लोग ऐसा कहते हैं कि प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त बुद्धिपूर्वक राग होता है । इसलिये वहां तक ज्ञान और सम्यक्त्व दोनों ही सविकल्प हैं । सविकल्प अवस्था में ज्ञानचेतना भी नहीं होती है अर्थात् छठे गुणस्थान से ऊपर ही ज्ञानचेतना होती है नीचे नहीं । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहनेवाले यथार्थ वस्तुके विचारक नहीं है, क्यों नहीं है सो नीचे बतलाते हैं । यतः पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेत्परम् । परो वा नाश्रयेद्दोषं गुणाञ्चापि पराश्रितम् ॥ ९९७ ॥ अर्थ – क्योंकि दूसरेके आश्रय से होनेवाला गुण दोष दूसरेके आश्रय नहीं हो सक्ता है । इसी प्रकार दूसरा भी दूसरेके आश्रयसे होनेवाले गुण दोषोंको अपने आश्रित नहीं बना सक्ता है । भावार्थ - जिस आश्रयसे जो दोष अथवा गुण होता है वह दोष अथवा गुण उसी आश्रयसे होता है अन्य किसी दूसरे आश्रयसे नहीं होसक्ता ऐसा सिद्धान्त स्थिर रहने पर भी जो पराश्रित गुणदोषोंको अन्याश्रित बतलाते हैं वे वास्तव में बड़ी भूल करते हैं । राग किस कारण से होता है ? पाकाचारित्रमोहस्य रागोस्त्योदधिकः स्फुटम् । _ अर्थ — चारित्रमोहनीय कर्मका पाक होनेसे राग होता है, राग आत्माका औदयिक भाव है, अर्थात् कर्मो के उदयसे होनेवाला है । वह औदयिक भाव अनुदय स्वरूप सम्यक्त्व और ज्ञानमें किस प्रकार हो सक्ता है ? अर्थात् नहीं हो सक्ता । स कुतोन्यायाज्ज्ञाने वाऽनुद्यात्मके ॥ ९९८ ॥ भावार्थ -: -राग आत्माका
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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