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________________ अध्याय । ] बोधिनी टीका । [१९१ अर्थ - अट्ठाईस मूलगुणोंको सम्पूर्ण रीति से पालने से ही मुनित्रत सिद्ध होता है । इनमें से कुछ गुणोंको पालनेसे मुनित्रत नहीं समझा जाता, किन्तु वह भी अपूर्ण ही रहता है । जितने अंशमें मूलगुणोंमें न्यूनता रहती है उतने ही अंशमें मुनिव्रतमें भी न्यूनता रह जाती है । ग्रन्थान्तर ( अट्ठाईस मूलगुण ) वदसमिदिदियरोधो लोचो आवस्सयमचेलमन्हाणं । खिदिसयणमदंतमणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥ ७४५ ॥ अर्थ - पंच महाव्रत, पंचै समिति, पाचों इन्द्रियोंका निरोध, केशलोंच करना, छ आवश्यकों (समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग ) का पालना, वेस्त्र धारण नहीं करना, स्नाने नहीं करना, पृथ्वीपर सोना, दन्तधावन नहीं करना, खेड़े होकर आहार लेना और एकैवार भोजन करना ये मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुण हैं । मुनियोंके उत्तर गुण एते मूलगुणाः प्रोक्ताः यतीनां जैनशासने । लक्षाणां चतुरशीतिर्गुणाश्चोत्तरसंज्ञकाः ॥ ७४६ ॥ अर्थ- - ऊपर कहे हुए मुनियोंके मूल गुण जैन शासनमें कहे गये हैं उन्हीं मुनियोंके उत्तर गुण चौरासी लाख हैं । सारांश ततः सागारधर्मो वाऽनगारो वा यथोदितः । प्राणिसंरक्षणं मूलमुभयत्राऽविशेषतः ॥ ७४७ ॥ अर्थ-सारांश यही है कि जो गृहस्थोंका धर्म कहा गया है अथवा जो मुनियों का धर्म कहा गया है उन दोनोंमें सामन्य रीति से प्राणियों की रक्षा मूल भूत है, अर्थात् दोनोंके व्रतों का उद्देश्य प्राणियोंकी रक्षा करना है। गृहस्थ धर्ममें एक देश रक्षा की जाती है और मुनि धर्म में सर्वथा की जाती है । त्रियारूप व्रतोंका पल उक्तमस्ति क्रियारूपं व्यासाद्व्रत कदम्बकम् । सर्वमावद्ययोगस्य नदेकस्य निवृत्तये ॥ ७४८ ॥ अर्थ -- और भी जो क्रियारूप व्रतों का समूह विस्तारसे कहा गया है वह एक सर्व सावद्ययोग (प्राणि हिंसा परिणाम ) की निवृत्तिके ही लिये है । व्रतका लक्षण अर्थाज्जैनोपदेशोयमस्त्यादेशः स एव च । सर्वसावद्ययोगस्य निवृत्तिर्व्रतमुच्यते ॥ ७४९ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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