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________________ अध्याय सुबोधिनी टीका। [१८५ देता है । और ज्ञानदान सदाके लिये अनर, अपर, क्षुवादि दोषरहित और निर्भय बना देता है। ज्ञानदानका अतुल माहात्म्य है । पहलेके तीनों दान तो शारीरिक बाधाओंको ही दूर करते हैं परन्तु ज्ञान दान आत्माके निज गुणका विकास करता है। पहलेके तीन दान तो एक भवके लिये अथवा उसमें भी कुछ समयके लिये ही इस जीवके सहायक हैं परन्तु ज्ञान दान इस जीवका सदाके लिये परम सहायक है । ज्ञान ही एक ऐसा गुण है जो इस जीवात्माको सांसारिक वासनाओंसे हटाकर त्याग मार्ग पर ले जाता है इसलिये श्रावकोंको चारों ही दान और विशेषतासे ज्ञान दान यथाशक्ति अवश्य करना चाहिये । छात्रोंकी सहायता करना, विद्यालयोंका खोलना, शास्त्रोंका वितरण करना, सदुपदेश देना, और स्वयं पढ़ाना ये सम्पूर्ण बातें ज्ञान दानमें गर्भित हैं। कुपात्र और अपात्रको भी दान देनेका उपदेश, कुपात्रायाप्यपात्राय दानं देयं यथोचितम् । पात्रवुड्या निषिडं स्यानिषिद्धं न कृपाधिया ।। ७३० ॥ अर्थ-* कुपात्र और अपात्रके लिये भी यथोचित दान देना चाहिये । इतना विशेष है कि कुपात्र और अपात्रके लिये पात्र बुद्धिसे दान देना निषिद्ध (वर्जित) कहा गया है, • परंतु वह कृपाबुद्धिसे निषिद्ध नहीं है । भावार्थ-कुपात्र और अपात्रके लिये पात्र बुद्धिसे जो दान दिन दिया जाता है वह मिथ्यात्वमें शामिल किया गया है, क्योंकि पात्र सम्यग्दृष्टि ही होसक्ता है । पात्रके लिये जो दान दिया जाता है वह भक्ति पूर्वक दिया जाता है, परन्तु कुपात्र अथवा अपात्रके लिये जो दान दिया जाता है वह भक्ति पूकि नहीं दिया जाता किन्तु करुगा बुद्धिसे दिया जाता है। दान का सामान्य उपदेशशेषेभ्यः क्षुत्पिपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्यो दयादानादि दातव्यं करुणार्णवैः ॥ ७३१ ॥ अर्थ-और भी जो अशुभकर्मोदयसे क्षुधा, प्यास आदि बाधाओंसे पीड़ित दीन पुरुष हैं उनके लिये भी करुणा सिन्धुओं (दयालुओं)को करुणादान आदि करना चाहिये । ** उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं मयं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् । निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ।। अर्थात्-सम्यग्दर्शन सहित महाव्रती दिगम्बर मुनि उत्तम पात्र हैं, अणुव्रती सम्यग्दृष्टि मध्यम पात्र है। व्रत रहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। ये तीनों ही सत्यात्र गिने जाते हैं। सम्यग्दर्शन रहित व्रती जीव कुपात्र है तथा जो सम्यग्दर्शन और व्रत दोनोंस रहित है वह अपात्र है। (सागारधामृत) उ० २४
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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