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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। [१७१ निर्ग्रन्थोन्तर्बहिर्मोहग्रन्थेरुद्ग्रन्थको यमी । कर्मनिर्जरकः श्रेण्या तपस्वी स तपोंशुभिः ॥ ६७२ ॥ परीषहोपसर्गाद्यैरजय्यो जितमन्मथः । एषणाशुद्धिसंशुद्धः प्रत्याख्यानपरायणः ॥ ६७३ ॥ इत्याद्यनेकधाऽनेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुषां महान् ॥ ६७४॥ अर्थ-मोक्षका मार्ग चारित्र है उस चारित्रको जो सद्भक्ति पूर्वक आत्मसिद्धिके लिये सिद्ध करता है उसे साधु कहते हैं । यह साधु न तो कुछ कहता ही है और न हाथ पैर आदिसे किसी प्रकारका इशारा ही करता है. तथा मनसे भी किसीका चिन्तवन नहीं करता, किन्तु एकाग्रचित्त होकर केवल अपने शुद्धात्माका ध्यान करता है जिसकी अन्तरंग और बाह्य वृत्तियां, बिल्कुल शान्त हो चुकी हैं वह तरंगरहित समुद्र के समान मुनि कहलाता है। वह मुनि न तो सर्वथा आदेश ही करता है और न उपदेश ही करता है, आदेश और उपदेश वह स्वर्ग और मोक्षमार्गके विषयमें भी नहीं करता है विपक्षकी तो बात ही क्या है, अर्थात् विपक्ष संसारके विषयमें तो वह बिल्कुल ही नहीं बोलता है। ऐसा मुनि वैराग्यकी उत्कृष्ट कोटि तक पहुंच जाता है । अथवा मुनिका स्वरूप ही यह है कि वह वैराग्यकी चरमसीमा तक पहुंच जाता है। और वह मुनि अधिक प्रभावशाली, दिगम्बर दिशारूपी वस्त्रोंका धारण करनेवाला, बालकके समान निर्विकार रूपका धारी, दयामें सदा तत्पर, निष्परिग्रह नग्न, अतरंग तथा वहिरंग मोहरूपी ग्रन्थियों (गाठों)को खोलनेवाला, सदाकालीन नियमोंको पालनेवाला, तपकी किरणोंके द्वारा श्रेणीके क्रमसे कर्मोकी निर्जरा करनेवाला, तपस्वी, परीषह तथा उपसर्गादिकोंसे अजेय, कामदेवका जीतनेवाला, एषणाशुद्धिसे परम शुद्ध, चारित्रमें सदा तत्पर इत्यादि अनेक प्रकरके अनेक उत्तम गुणोंको धारण करनेवाला होता है। ऐसा ही साधु कल्याणके लिये नमस्कार करने योग्य है । और कोई विद्वानोंमें श्रेष्ठ भी हो तो भी नमस्कार करने योग्य नहीं है। . भावार्थ-मुनिके लिये ध्यानकी प्रधानता बतलाई गई है, इसी लिये मुनिको आदेश और उपदेश देनेका निषेध किया गया है। आदेश तो सिवा आचार्यके और कोई दे ही नहीं सक्ता है परन्तु मुनिके लिये जो उपदेश देनेका भी निषेध किया गया है वह केवल ध्यानकी मुख्यतासे प्रतीत होता है। सामान्य रीतिसे मुनि मोक्षादिके विषयमें उपदेश कर ही सकता है । यहांपर पदस्थके कर्तव्यका विचार है इसलिये साधुके कर्तव्यमें ध्यानमें तल्लीनता ही कही गई है। उपदेश क्रिया साधु पदके लिये ही वर्जित है। क्योंकि वह मुख्यतया उपाध्यायका काम है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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