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________________ १६४ १ पञ्चाध्यायी । किंवात्र बहुनोक्तेन तद्विशेषोऽवशिष्यते । विशेषाच्छेदनिःशेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ॥ ६४४ ।। अर्थ - आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु तीनोंका ही समान कारण है अर्थात् तीनों रहता और कषायत्रय के जीतनेसे मुनि हुए हैं। क्रिया (आचरण) भी तीर्थों की समान है, वाह्य व भी ( निन्य - नग्न ) समान है, वारह प्रकारका तप भी सबके समान है, पांच प्रकारका महाव्रत भी समान है, तेरह प्रकारका चारित्र भी समान है, समता भी समान है, अट्ठाईस मूलगुण और चौरासी लाख उत्तरगुण भी समान ही हैं, चारित्र भी समान है, परीषह और उपसा सहन करना भी समान है, आहारादिक विधि भी सभी की समान है । चर्या विधि भी समान है | स्थान आसन आदि भी समान हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र जो आत्मिक गुण तथा रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग है वह भी अन्तरंग और बाहरमें समान ही है, और भी ध्येय, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, चार आराधनायें (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ) क्रोधादि पायका जीतना आदि सभी बातें एकसी हैं। इस विषय में अधिक क्या कहा जाय, इतना ही कहना बस होगा कि वही विशेष रह जाता है जोकि विशेषतासे दूर हो चुका है । अर्थात् न्यायानुसार तीनों में सर्वथा समानता है, कोई विशेषता नहीं है । अब तीनोंका भिन्न २ स्वरूप कहते हैं ध्याता, ध्यान, आचार्यका स्वरूप -- आचार्यानादितो रूयगादपि निरुच्यते । पञ्चाचारं परेभ्यः स आचरयति संयमी ॥ ६४५ ॥ [ दूसरी अर्थ -- आचार्य संज्ञा अनादिकालसे नियत है । पंच परमेष्ठियों की सत्ता अनादिकालीन है । यौगिक दृष्टिसे भी आचार्य उसे कहते हैं जो कि दूसरों ( मुनियों) को पांच प्रकारका आचार ग्रहण करावे अर्थात् जो दीक्षा देवे वही आचार्य है । और भीअपि छिन्ने व्रते साधोः पुनः सन्धानमिच्छतः । तरसमावेश दानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥ ॥ ६४६ ॥ अर्थ - और जिस किसी साधुका व्रत भंग हो जाय, और व्रत भंग होने पर वह साधु फिरसे उसको प्राप्त करना चाहे तो आचार्य उस व्रतको फिरसे धारण कराते हुए उस साधुको प्रायश्चित देते हैं, अर्थात् दीक्षा के अतिरिक्त प्रायश्चित देना भी आचार्यों का कर्तव्य है । आदेश और उपदेश में भेद आदेशस्योपदेशेभ्यः स्याद्विशेषः स भेदभाकू । आददे गुरुगा दत्तं नोपदेशेष्वयं विधिः ॥ ६४७ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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