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________________ VvvvvvvAAAAM अध्याय। सुबोधिनी टीका। [१४५ अर्थ-जो मनुष्य असत् पदार्थकी उत्पत्ति मानता है और सत् पदार्थका नाश मानता है तथा फिर अगुप्ति-भयसे छूटना चाहता है वह ऐसा मानने वाला अगुप्ति भयसे कहां छुटकारा पा सक्ता है ? सम्यग्दृष्टोसम्यग्दृष्टिस्तु स्वरूपं गुप्तं वै वस्तुनो विदन् । निर्भयोऽगुप्तितो भीतेः भीतिहेतोरसंभवात् ॥ ५३८ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि तो वस्तुके स्वरूपको निश्चयरीतिसे रक्षित ही मानता है, वह भयके कारणको ही असंभव मानता है इसलिये वह अगुप्ति-भीतिसे निर्भय रहता है। __ मृत्यु भयमृत्युः प्राणात्ययः प्राणाः कायवागिन्द्रियं मनः। निःश्वासोच्छासमायुश्च दशैते वाक्यविस्तरात् ॥ ५३९ ॥ अर्थ-प्राणोंका नाश होना ही मृत्यु है। काय, वचन, पांच इन्द्रिय, मन, निःश्वासोच्छवास और आयु ये दश प्राण हैं। ये दश प्राण विस्तार रूप हैं। यदि इन्हींको संक्षेपमें कहा जाय तो बल (काय, वचन, मन) इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और आयु, ऐसे चार प्राण हैं। तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित् । कदा लेभे न वा दैवात् इत्याधिः स्वे तनुव्यये ॥५४०॥ अर्थ-मृत्यु-भय इस प्रकार होता रहता है कि मैं जीता रहूं, मैं कभी नहीं मरूँ, अथवा दैवयोगसे कभी मर न जाऊं, इत्यादि पीडा अपने शरीरके नष्ट होनेके भयसे होती रहती है। मृत्यु भयका स्वामीनूनं तद्भीः कुदृष्टीनां नित्यं तत्वमनिच्छताम् । अन्तस्तत्त्वैकवृत्तीनां तद्भीतिर्ज्ञानिनां कुतः ॥५४१॥.. अर्थ-निश्चयसे मृत्यु भय तत्त्वको नहीं पहचानने वाले मिथ्यादृष्टियोंको ही सदा बना रहता है। जिन्होंने आत्माके स्वरूपमें ही अपनी वृत्तियोंको लगा रक्खा है ऐसे सम्यग्ज्ञानियोंको मृत्यु भय कहांसे होसकता है ? सम्यग्दृष्टीको मृत्यु भय क्यों नहीं ? जीवस्य चेतना प्राणाः नूनं सात्मोपजीविनी। नार्थान्मृत्युरतस्तद्रीः कुतः स्यादिति पश्यतः ॥५४२ ॥ अर्थ-जीवके चेतना ही प्राण हैं। वह चेतना निश्चयसे आत्मोपजीविनी (आत्माका उपजीवी गुण) है। ऐसा देखनेवाला मृत्यु होना ही नहीं समझता, फिर मृत्यु-भय उसे कहांसे हो सकता है ?
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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