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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका। [११७ छद्मस्थके उपयोग सदा नहीं रहता किन्तु लब्धि रहित हैयस्माज्ज्ञानमनित्यं स्याच्छद्मस्थस्योपयोगवत् । नित्यं ज्ञानमछद्मस्थे छद्मस्थस्य च लब्धिमत् ॥४०८॥ . अर्थ--छद्मस्थ ( अल्पज्ञ ) पुरुषका उपयोग एकसा नहीं रहता, कभी किसी पदार्थ विषयक होता है और कभी किसी पदार्थ विषयक होता है, तथा कभी कभी निद्रादि अवस्था. ओंमें अनुपयोगी ज्ञान भी रहता है। इसलिये छद्मस्थों का उपयोगात्मक ज्ञान अनित्य होता है। परन्तु सर्वज्ञका उपयोगात्मक ज्ञान सदा नित्य रहता है। छद्मस्थोंका क्षयोपशम ( लब्धि) रूप ज्ञान नित्य रहता है। सारांशनित्यं सामान्यमात्रत्वात् सम्यक्त्वं निर्विशेषतः।। तत्सिद्धा विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः ॥४०९॥ 'अर्थ-सम्यग्दर्शन भी सामान्यरीतिसें नित्य ही है इसलिये सम्यक्त्व और अनुभव दोनोंमें विषम व्याप्ति है। भावार्थ-सम्यक्त्व नित्य है इसका आशय यही है कि उपयोगकी तरह वह बराबर बदलता नहीं है तथा लब्धिरूप अनुभव भी नित्य है। इसलिये सम्यक्त्व और लब्धि रूपअनुभवकी तो सम व्याप्ति है । परन्तु सम्यक्त्व और उपयोगात्मक-अनुभवकी विषम ही व्याप्ति है क्योंकि उपयोगात्मक ज्ञान सदा नहीं रहता है। प्रतिज्ञा-- अपि सन्ति गुणाः सम्यक् श्रद्धानादि विकल्पकाः। उद्देशो लक्षणं तेषां तत्परीक्षाधुनोच्यते ॥ ४१०॥ अर्थ-स्वानुभूतिके साथ होनेवाले सम्यक्श्रद्धान आदि और भी बहुतसे गुण हैं। ग्रन्थकार कहते हैं, कि अब उनका उद्देश्य, लक्षण, परीक्षा बतलाते हैं। उद्देश्य-- तत्रोदेशो यथा नाम श्रडारुचिप्रतीतयः। चरणं च यथाम्नायमर्थात्तत्वार्थगोचरम् ॥४११ ॥ अर्थ-आम्नाय (शास्त्र-पद्धति )के अनुसार अर्थात् जीवादि तत्त्वोंके विषयमें श्रद्धा करना, रुचि करना, प्रतीति करना, आचरण करना, यह सब कथन उद्देश्य कहलाता है। लक्षणतत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा सात्म्यं रुचिस्तथा । प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया ॥ ४१२॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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