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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका। अर्थ-यदि सुख गुण सदा विद्यमान ही माना जावै तो अवश्य दोष आते हैं । जो दोष आते हैं उनकी युक्ति पहले ही कही जाचुकी है। जो स्वस्थ जीव है उसके वास्तवमें व्याकुलता कहां हो सक्ती है ? और संसारी जीवके व्याकुलता है, इस लिये जाना जाता है कि सुखका अभाव है। उसीकी दूसरी शंकानचैकतः सुखव्यक्तिरेकतो दुःखमस्ति तत् । एकस्यैकपदे सिद्धमित्यनेकान्तवादिनाम् ॥ ३३३ ॥ अर्थ-अनेकान्तवादी (जैन) एक पदार्थमें एक ही स्थानमें दो धर्म मान लेते है, इसलिये एक आत्मामें ही सुख व्यक्ति और उसीमें दुःख व्यक्ति मानलेना चाहिये अर्थात् एक ही आत्मामें एक समयमें सुख और दुःख दोनों मानना चाहिये । ऐमा माननेसे जैनियोंका अनेकान्तवाद भी घट जाता है ? सो यह कहना भी असमझका है। अनेकान्तका स्वरूपअनेकान्तः प्रमाणं स्यादर्थादेकत्र वस्तुनि ।। गुणपर्याययोद्वैताद् गुणमुख्यव्यवस्थया ॥ ३३४॥ अर्थ-एक वस्तु में होनेवाला जो अनेकान्त है वह प्रमाण अवश्य है, परन्तु सब जगह नहीं । जहां पर गुण, पर्यायके कथनमें एकको मुख्य कर दिया जाता है और दूसरेको उस समय गौण कर दिया जाता है, वहीं पर अनेकान्त प्रमाण है और वहीं पर द्वैत घटता है। अभिव्यक्तिस्तु पर्यायरूपा स्यात्सुखदुःखयोः। तदात्वे तन्न ततिं दैतं चेद्रव्यतः क्वचित् ॥ ३३५॥ अर्थ-परन्तु सुख, दुःखकी व्यक्ति (प्रगटता) तो पर्याय स्वरूप है। ऐसी अवस्थामें द्वैत नहीं घट सक्ता । द्वैत यदि कहीं पर होगा तो द्रव्यकी उपेक्षासे ही होगा। भावार्थ-ऊपर दो प्रकारकी शंकायें उठाई गई हैं, उनमें पहली तो यह थी कि सुख सदा ही रहता है ? इसका यह उत्तर दे दिया गया कि यदि सुख सदा ही रहता है तो जीव व्याकुल क्यों होता है ? सुख गुणकी प्रगटतामें व्याकुलता नहीं रह सक्ती। इसलिये सुख सदा प्रगट नहीं रहता। दूसरी शङ्का इस प्रकार थी की-एक आत्मामें सुख और दुःख थोडा २ दोनों ही साथ मानो ? और यही अनेकान्त है ? इसका यह उत्तर है कि एक पदार्थमें दो धर्म एक साथ अवश्य रहते हैं । परन्तु रहते वे ही हैं जिनमें एकके कथनमें मुख्यता पाई जाती है और दूसरेकेमें गौणता, तथा यह वात वहीं घट सक्ती हैं जहां कि एक ही द्रव्यमें गुण और पर्यायोंका कथन किया जाता हैं । सुख दुःख दोनों एक साथ कभी नहीं रह सक्ते। क्योंकि इनकी उ० १३
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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