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________________ खेलंमिपडिअमप्पंजह ण तरइ मच्छिआविमोएऊ। तह विसयखेलपडिअंण तरइ अप्पंपिकामंधो ४६॥ कफ़में फँसि माखी निजहिं, सकै नहीं सुरझाय । ___ कामअंध त्यों जीव हू, विषयविर्षे उरझाय ॥ ४६॥ जं लहइ वीयराओ सुक्खं तंमुणइ सुचिअणअण्णो णविगत्ता सूअरओ जाणइ सुरलोइअं सुक्खं४७॥ चौपाई। सुख विरागको लहहिं विरागी। जानहिं नहीं विषयअनुरागी॥ गर्तनिवासी शूकर जैसो। सुरपुर सुख जानै नहिं कैसो ॥४७॥ जं अज्झवि जीवाणं विसएसु दुहावहेसु पडिबंधो । तंणज्झइ गुरुआणवि अलंघणिज्झो महामोहो४८॥ दोहा। अजहूं दुखदा विषयकों, धारत है जिय संघ । तातें जानौं मोह रिपु, गुरुजनतें हु अलंघ ॥ ४८ ॥ जे कामंधा जीवा रमंति विसएसु ते विगयसंका। जे पुण जिणवयणरया ते भीरू तेसु विरमंति ४९॥ कामअंध जे पुरुष ते, विलसत भोग निशंक । अरु जिनवचअनुरक्त ते, विरचैं करि जग शंक ॥४९॥ १ गड्ढा । २ महापुरुष ।
SR No.022372
Book TitleIndriya Parajay Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhulal Shravak
PublisherNirnaysagar Press
Publication Year1912
Total Pages38
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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