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________________ "स्मरणीय - 1 " संघ की रक्षा, शासन सेवा करने से और सम्यग्द्रष्टि होने से शासनदेव स्मरणीय ( याद करने लायक है) "जिन - 4 " (1) नाम जिन - परमात्मा का नाम । (2) स्थापना जिन - परमात्मा की मूर्ति को स्थापना जिन कहते है । (3) द्रव्य जिन · तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित करेवहां से लगा कर केवलज्ञान नही हो, वे तब तक द्रव्य जिन कहलाते है अथवा भूतकाल में हुए जिनेश्वर भी द्रव्य-जिन कहलाते है । (4) भाव जिन - समवसरणमें भवि जीवो को देशना देने वाले । "चार थोय " ० प्रथम थोय मूलनायक की अथवा 1-16-22-23-24 वे तीर्थंकर की। ० दूसरी थोय सभी जिनेश्वर की । ० तीसरी थोय श्रुतज्ञान की । ० चोथी थोय शासनदेव की । ० सद्धाए - मिथ्यात्व मोहनीय के क्षयोपशम से अथवा उत्पन्न हुई श्रध्धा से, किसी भी प्रकार के दवाब व दाक्षिण्यता से नहि। ० मेहाए · जडता से नहि । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हूई सूक्ष्म बुध्धि से । काउसग्गमें विशेष उपयोगी ० धिइए · मन की समाधि से । लेकिन राग द्वेषसे व्याप्त चित्त से नहिं। ० धारणाए · अरिहंत परमात्मा के गुणो के स्मरण से । मन की शून्यता से नहि । ० अणुप्पेहाए - अरिहंत परमात्मा के गुणो का बार-बार स्मरण करने से। ० सोल आगार · जिस को रोकना मुश्किल है, एसी काउसग्ग में दी गई पदार्थ प्रदीप DO76
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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