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________________ 3. वेदनीय - मधु से लिप्त तलवार की धार को चाटने से जीभ कट है, मधु के स्वाद में सुख, जीभ कटने से दुःख । उसी प्रकार शाता वेदनीय से सुख मिलता है, मगर उसमें आसक्ति रखने से अशाता का बंध होता है । 4. मोहनीय - मदिरा पान से विवेक नष्ट होता है, उसी प्रकार इस कर्म के उदय से सत् असत् का विवेक नष्ट होता है । 5. आयुष्य - किसी भी गति में - नारकादिभवमें निश्चित समय तक जकड के रखना, जैसे जेल में कैदी रखा जाता है । 6. नाम - चित्रकार जैसे नये नये चित्र बनाता है, इसी प्रकार इस कर्म के उदय से जीव को शरीर, अंगोपांग, वर्णादि, रुपवान, कुरुपी, लोकप्रिय, अप्रिय, मधुर आवाज, कठोर, कर्कश अवाज इत्यादि प्राप्त होता है । 7. गोत्र - कुंभकारने बनाया हुआ घडा मदिरा भरने के कार्य में या मांगलिक कार्य में प्रयोग किया जाता है अर्थात् धिक्कारभाव व सन्मान भाव प्राप्त होता है । इसी तरह उच्चगोत्र के उदय से उच्चकुल वैभवादि प्राप्त होता है और उसमें मद करने से नीचगोत्र का उदय होता है, उससे हलके कुल आदि प्राप्त होते है । 8. अंतराय - भंडारी जैसे शेठ को दान देते रोकता है, उसी प्रकार. संपत्ति आदि उपलब्ध होने पर भी इस कर्म के उदय से जीव दान-भोग आदि नही कर सकता है । आठ कर्म की स्थिति ० ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय ये चार कर्म की जधन्य स्थिति · अंतर्मुहुर्त ० उत्कृष्ट स्थिति - 30 कोडा कोडी सागरोपम । ० नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति मुहुर्त पदार्थ प्रदीप - 22
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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