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________________ vvvv wwwww १२] प्रथम अध्याय सूर्यका प्रकाश न होनेसे खद्योत (जुगुनू) जरासा प्रकाश करते हुये कहीं कहीं पर चमकते हैं उसी प्रकार इस दुःखम पंचमकालमें अनेकांतरूप सम्यक् उपदेश बौद्ध नैयायिक आदि सर्वथा एकांती मिथ्यादृष्टियोंके उपदेशसे ढक रहा है। इसका कारण यह है कि चतुर्थकालमें जैसे केवली श्रुतकेवली आदि सूर्यके समान तत्त्वोंको प्रकाश करते हुये सब जगह विहार करते थे वैसे केवली श्रुत केवली वर्तमान समयमें नहीं हैं, केवल सुगुरु आदि सदुपदेशक खद्योतके समान तत्त्वोंका थोड़ासा स्वरूप प्रगट करते हुये कहीं कहीं पर दिखलाई देते हैं। ग्रंथकारने इसी विषयका शोक और अंतरंगका संताप कष्टार्थक हा शब्दसे प्रगट किया है। १ विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुदंडवाग्डंबराः शृंगारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते । ये तेच प्रतिसद्म संति बहवो व्यामोहविस्तारिणा येभ्यस्तत्परमात्मतत्त्वविषय ज्ञानं तु ते दुर्लभाः ॥ अर्थ- आपको विद्वान मानकर जो सभाओंमें शब्दोंका घटाटोप दिखलाते हुये बहुत आडंबर करते हैं तथा जो श्रृंगार आदि रसोंके द्वारा आनंद देनेवाले अनेक व्याख्यान देते हैं और लोगोंको मोहजालमें फंसाते हैं ऐसे उपदेशक तो बहुत हैं, प्रत्येक घरमें मौजूद हैं, परंतु जिनसे कुछ परमात्म तत्वका ज्ञान हो ऐसे उपदेशक बहुत दुर्लभ हैं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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