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________________ - श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये । नलकुच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोऽयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥१७॥ अनेकाहत्प्रतिष्ठान्तप्रतिष्ठैः केल्हणादिभिः । सद्यः सूक्तानुरागेण पठित्वाऽयं प्रचारितः ॥ १८ ॥ अलमतिप्रसङ्गेन-- यावत्रिलोक्यां जिनमन्दिरार्चाः तिष्ठन्ति शक्रादिभिरर्च्यमानाः । तावजिनादिप्रतिमाप्रतिष्ठां शिवार्थिनोऽनेन विधापयन्तु ॥१९॥ नन्द्याखाण्डिल्यवंशोत्थः केल्हणो न्यासवित्तरः । लिखितं येन पाठार्थमस्य प्रथमपुस्तकम् ॥ २० ॥ इत्याशाधर विरचितो जिनयज्ञकल्पः। भावार्थ-प्राचीन प्रतिष्ठापाठोंको वर्जित करके और इंद्रसम्बन्धी व्यवहारको देखकर यह वर्तमान युगके अनुकूल ग्रंथ बनाया, जो कि आम्नायविच्छेदरूपी अंधकारको नाश करनेवाला है । खंडेलवाल वंशके भूषणरूप अल्हणके पुत्र, श्रावकधर्ममें लवलीन रहनेवाले, नलकच्छपुरनिवासी, परोपकारी, देवपूजा, पात्रदान तथा जिनशासनका उद्योत करनेवाले और प्रतिष्ठाग्रणी पापासाधुने वारंवार अनुरोध करके यह ग्रंथ बनावाया। आसोज सुदी १५ वि. सं. १२८५के दिन परंमारकुलके मुकुट देवपाल उर्फ साहसमल्ल राजाके राज्यमें नलकच्छपुर नगरके नेमिनाथ चैत्यालयमें यह ग्रंथ समाप्त हुआ। अनेक जिनप्रतिष्ठाओमें प्रतिष्ठा पाये हुए केल्हण आदि विद्वानोंने नवीन सूक्तियों के
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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