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________________ सागारधर्मामृत [२८७ | को धारण करता हो वही स्वदारसंतोषी है । ऊपर जो केवल पापके भयसे अन्य स्त्री और वैश्याओंको सेवन नहीं करता" ऐसा लिखा है उसका अभिप्राय यह है कि यदि वह राजा आदिके भयसे परस्त्री वा वेश्याका त्याग करे तो वह स्वदार संतोषी नहीं हो सकता। यहांपर इतना और समझ लेना चाहिये कि जो मद्य मांस मधु और पांचों उदंबरोंके त्यागरुप अष्ट मूलगुणोंको अतिचार रहित पालन करता है और विशुद्ध सम्यग्दृष्टी है उसीकेलिये यह कथन है, जो पुरुष स्वस्त्रीके समान साधारण स्त्रियोंका ( वेश्याओंका ) भी त्याग नहीं कर सकता, केवल परस्त्रीका ही त्याग करता है वह भी ब्रह्मचर्याणुव्रती माना जाता है । इसका भी कारण यह है कि ब्रह्मचर्याणुव्रत दो प्रकारका है एक स्वदारसंतोष और दूसरा परस्त्रीत्याग । संसारमें अपनी स्त्रीके सिवाय दो प्रकारकी स्त्रियां है एक अन्यस्त्री और दूसरी वेश्या वा प्रकटस्त्री । इन दोनोंके त्यागकी अपेक्षासे ब्रह्माचर्याणुव्रत भी दो प्रकारका हो जाता है । जो दोनोंको त्याग करता है वह स्वदारसंतोषी हैं और जो केवल परस्त्रीका त्याग करता है वह परस्त्रीत्यागी 'कहलाता १-श्री समंतभद्रस्वामीने भी कहा है-" न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोष नामापि ॥” अर्थात्-" जो पापके भयसे परस्त्रीसेवन नहीं करता और न दूसरोंको सेवन करनेकी प्रेरणा करता है उसका वह परस्त्रीत्याग व्रत कहलाता है और वह स्वदार संतोषरूपसे भी होता है।" mar
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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