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________________ arramanawrrrrrrrrrrrrrrr wrmwarrammmwww.x २८२ ] चौथा अध्याय तुला और प्रतिरूपकव्यवहृति इन दोनोंसे दूसरेका अधिक द्रव्य लिया जाता है इसलिये चोरी होनेसे दोनोंसे ही व्रतका भंग होता है परंतु इन दोनोंको करनेवाला ऐसा समझता है कि किसीका घर फोडकर माल निकाललेना ही चोरी है, यह चोरी थोडे ही है, यह तो व्यापारकी एक कला वा चतुराई है, यह व्यापारकी चतुराई मैं करता हूं, चोरी नहीं । इसप्रकार अपने परिणामोंसे अचौर्यव्रतकी रक्षा करनेकेलिये वह सदा तैयार रहता है इसलिये उसका अंतरंग व्रत भंग नहीं होता। इसप्रकार व्रतका भंग अभंग दोनों होनेसे अधिकहीनमानतुला और प्रतिरूपकव्यवहृति ये दोनों ही अतिचार हैं । विरुद्ध राज्यातिक्रम--किसी राजाका छत्र भंग होनेपर वा राज्य नष्ट होनेपर अथवा उसपर किसी बलवान राजाका आक्रमण होनेपर उचित न्यायसे अन्यथा अर्थात् अनुचित प्रवृत्ति करना, अधिक कीमती वस्तु कम कीमतमे लेना अथवा कम किमती वस्तु अधिक किमतमें बेचना आदिको विरुद्ध राज्यातिक्रम कहते हैं अथवा परस्पर द्वेष करनेवाले राजाओंकी जो भूमि और सेना आदि नियमित है उसे विरुद्ध राज्य कहते हैं उसका उल्लंघन करना अर्थात् उन दोनोंके परस्पर किये हुये नियमोंको तोडना वा उनके नियमोंके विपरीत चलना विरुद्ध राज्यातिक्रम है । जैसे किसी एक राज्यमें रहनेवाले मनुष्यको उसके विरुद्धवाले दूसरे
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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