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________________ सागारधर्मामृत दोनोंसे रहित भोगकर और फिर इस मनुष्य लोकमें चक्रवर्ती उत्तम पदों के सुख भोगकर तथा अंतमें दीक्षा प्राप्त करता है । तथा जो सम्यग्दर्शन और व्रत है उसे अपात्र कहते है ऐसे अपात्रको दान देना व्यर्थ है अर्थात् विपरीत फल (दुःखादि) देनेवाला है अथवा निष्फल ' है । अभिप्राय यह है कि पात्रको दान देने से अच्छा फल मिलता है और अपात्रको देना व्यर्थ जाता है उसका कुछ फल नहीं होता ॥ ६७ ॥ आगे -- पात्रदान के पुण्योदय से भोगभूमिमें जन्म लेनेवाले प्राणियों की जन्मसे सात सप्ताह में ही क्या अवस्था हो जाती है वही दिखलाने के लिये कहते हैं [ १५१ तीर्थंकर आदि धारणकर मोक्ष अपात्रदानतः किंचिन्न फलं पापतः परं । लभ्यते हि फलं खेदो बालुकापुंजपेषणे || अर्थ - अपात्रको दान देनेसे पापके सिवाय और कुछ फल नहीं मिलता । कोल्हूमें पापका समूह पेलनेसे खेद ही फल मिलता है । अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमं । साधुं विहाय चौराय तदर्पयति स स्फुटं ॥ अर्थ - जो गृहस्थ सत्पात्रको छोडकर अपात्रको धन देता है वह साधु पुरुषको छोडकर देखते देखते चोरको अर्पण करता है । यत्र रत्नत्रयं नास्ति तदपात्रं विदुर्बुधाः । उतं तत्र वृथा सर्वमुखरायां क्षिताविव ॥ अर्थ - जिसमें रत्नत्रय न हो वह अपात्र है उसको दिया दुआ दान ऊपर में बोये हुये बीजके समान निष्फल है। 1
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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