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________________ सागारधर्मामृत धर्मसंतातिमकिष्टां रतिं वृत्तकुलोन्नतिं । देवादिसत्कृतिं चेच्छन् सत्कन्यां यत्नतो वहेत् ॥ ६० ॥ अर्थ - निरंतर धर्म चलाने के लिये पुत्र पौत्र आदि संतान होना, अथवा धर्मका कभी विच्छेद न होना, क्लेशरहित निर्विघ्न संभोगसुख की प्राप्ति होना, आचरण और कुलकी उन्नति करना तथा देवपूजा, आहारदान, द्विज बांधव आदिकों का आदर सत्कार करना इत्यादि कामोंकी इच्छा करनेवाले पुरुषको यलपूर्वक श्रेष्ठ कन्या के साथ अथवा सज्जन पुरुषकी कन्या के साथ विवाह करना चाहिये । यदि श्रावक किसी श्रेष्ठ कन्या के साथ विवाह न करेगा तो ऊपर लिखे हुये धर्मकार्य उससे कभी नहीं हो सकेंगे ॥ ६० ॥ [ १३९ आगे — जिसके स्त्री नहीं है अथवा जिसके दुष्ट स्त्री है ऐसे पात्रको भूमि सुवर्ण आदि दान देनेसे कुछ उपकार नहीं होता, इसलिये श्रेष्ठ कन्या देकर सपन कार करना ही चाहिये । इसी विधिको स्थापन ऊपर लिखे अर्थका प्रकारांतर से समर्थन करते हैं-सुकलत्रं विना पात्रे भूहेमादिव्ययो वृथा । कीटैर्ददश्यमानेंऽतः कोंबुसेकात् द्रुमे गुणः ॥ ६१ ॥ पुरुषों का उपकरनेके लिये अर्थ — जिसके श्रेष्ठ स्त्री नहीं है ऐसे पात्रको अर्थात् जिसमें मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन आदि गुण विद्यमान
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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