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________________ १३२ ] दूसरा अध्याय अरहंतदेवके कहे हुये जो उन्हीं क्रियासंबंधी मंत्र हैं, अथवा अपराजित मंत्र हैं, मद्यका त्याग मांसका त्याग आदि जो व्रत हैं तथा आदि शब्दसे देवपूजा पात्रदान आदि जो जो धर्मकार्य हैं उनका कभी नाश न हो वे सदा ज्यों के त्यों निरंतर चलते रहें ऐसी इच्छासे गृहस्थाको समानधर्मी गृहस्थोंके लिये यथोचित अर्थात् जो जिसके योग्य हो उसको वही देना अथवा जिसको जिसकी आवश्यकता हो उसको वही देना ऐसा विचारकर कन्या भूमि सुवर्ण आदि पदार्थों को उत्तम बनाकर देना चाहिये। भावार्थ--समान धर्मियोंको कन्या आदि देनेसे जैनधर्मका विच्छेद कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी प्रत्येक संतान जैनधर्म धारण करनेवाली होगी । इसतरह कन्या आदिका दान जैनधर्मकी वृद्धि होने और शास्त्रोक्त मंत्र व्रत क्रिया आदिकोंका निरंतर प्रचार होने में कारण हैं इसलिये वह पुण्यका भी कारण है ॥१७॥ आगे-कन्यादानकी विधि और उसका फल कहते हैं निर्दोषां सुनिमित्तसूचिताशवां कन्यां वराहैंर्गुणैः स्फूर्जतं परिणय्य धर्म्यविधिना यः सत्करोत्यंजसा। दंपत्योः स तयोस्त्रिवर्गघटनात् त्रैवर्गिकेष्वग्रणीभूत्वा सत्समयास्तमोहमहिमा कार्ये परेऽप्यूर्जति ॥५॥ अर्थ-जो कन्या सामुद्रिक शास्त्रमें कहे हुये दोषोंसे रहित है ओर जिसमें सामुद्रिकशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र तथा जिससे भविष्यतकी बात जानी जाय ऐसे अन्य शास्त्रोंके अनु
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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