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________________ AMANAVARAN ९८.] दूसरा अध्याय तीनों समय नित्य अरहंतदेवकी आराधना करना और संयमी मुनियों को प्रतिदिन आहारदान आदि देकर उनकी पूजा करना यह सब अलग अलग नित्यमह कहलाता है ॥२५॥ उसके साथ फिर उसका कोई संबंध नहीं है, विना स्वामीसंबंधके उस संबंधी हिंसा आदि पाप किसीको नहीं लग सकते । यदि विना संबंधके भी पाप लग सकते हों तो मुनियोंको भी संसारमात्रकी हिंसाके पाप लगने चाहिये । यह अवश्य है कि खेतके जोतने बोनेमें हिंसा होती है परंतु यदि जिनमंदिर में न देकर वह भूमि गृहस्थके भोगोपभोगके काम आती तो कहना चाहिये कि हिंसा आदि पापसे उत्पन्न हुआ धन फिर भी पापकार्यमें लगाया गया ! यदि वही भूमि या खेत जिनमंदिरमें दे दिया जाय तो उससे पापकार्य न होकर फिर पुण्यकार्य होने लगें। जिस गृहस्थके जिस भूमिका धन भोगोपभोगमें लगनेसे पाप होता था उसी धनके जिनमंदिरमें लगनेसे जो बडा भारी पुण्य होता है उसका भागीदार वही गृहस्थ होता है कि जिसने वह भूमि दी है । भूमिधन अटल धन है । सोना चांदी रुपये आदिक नष्ट हो सकते हैं, चोरी जा सकते हैं, जल सकते हैं, परंतु भूमिधन कभी नष्ट नहीं होता कभी जल नहीं सकता। जबतक उस मंदिरकी सत्ता रहेगी तबतक उसकी रक्षाका अटल और निर्विघ्न उपाय भूमिधन है । जहांपर मंदिरोंकी रक्षाके लिये भूमि देना प्रचलित है ऐसे कर्नाटक शादि देशोंमें हजारों वर्षों के जिनमंदिर अभीतक सुरक्षित हैं उनका प्रक्षाल पूजन आदि निर्विघ्न होता रहता है । इसलिये जिनमंदिर पाठशाला आदिकी यावजीव अटल रक्षा करनेके लिये उसके लिये खेत आदि भूमिका देना ही सबसे अच्छा उपाय है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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