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________________ ९४] दूसरा अध्याय आगे-पढना, पूजन करना और दान देना ये ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों के समान धर्म हैं परंतु पढाना पूजन कराना और दान लेना ये ब्राह्मणों के ही विशेष काम हैं इसी विषयको कहनेकेलिये आगेके प्रकरणका प्रारंम करते हैं और प्रथम ही पूजनादि करनेकेलिये पाक्षिक श्रावकको प्रेरणा करते हैं यजेत देवं सेवेत गुरून्यात्राणि तर्पयेत् । कर्म धर्म्य यशस्यं च यथालोकं सदा चरेत् ॥२३॥ अर्थ--श्रावकको इंद्रादि देवोंके द्वारा पूज्य ऐसे परमात्मा वीतराग सर्वज्ञदेवकी प्रतिदिन पूजा करना चाहिये, धर्माचार्य आदि दिगंबर मुनियोंकी उपासना सेवा सदा करनी चाहिये, पूज्य मोक्षमार्गमें तल्लीन हुये ऐसे उत्तम मध्यम जघन्य पात्रों से किसीको तृप्त करना चाहिये अर्थात् प्रतिदिन पात्रदान देना चाहिये, तथा "अपने आश्रित लोगोंको खिलाकर खाना, रात्रिभोजन नहीं करना आदि कार्य जिनमें दया प्रधान है जो धर्मकार्य कहलाते हैं और यश बढानेवाले हैं ऐसे कार्य भी अवश्य करने चाहिये । 'च' शब्दसे यह सूचित होता है कि वहार नहीं हो सकता । इसी तरह शूद्र भी केवल श्रावकधर्म पालन कर सकता है, द्विजोंके समान वह यज्ञोपवीत आदि संस्कार तथा उनके साथ पंक्तिभोजन आदि व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे लौकिक व्यवहार वह उन्हींके साथ कर सकता हैं कि जिनके साथ उसकी जातिके व्यवहार होते वा हो सकते हों चाहे वे किसीधर्मका पालन करनेवाले हों।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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