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________________ सागारधर्मामृत [७१ ऐसा नियम मान लिया जायगा तो जैसे नीम वृक्ष होता है इसतरह वृक्ष भी सब नीम होने चाहिये और फिर अशोक आदिको भी नीम कहना पडेगा इसलिये अन्न प्राणीका अंग होनेपर भी मांस नहीं है । जैसे माता और सहधर्मिणी स्त्री इन दोनोंमें यद्यपि स्त्रीपना एकसा है अर्थात् दोनों ही स्त्रीपर्यायको धारण करनेवाली हैं तथापि पुरुषोंको सहधर्मिणी स्त्री ही भोगने योग्य है माता नहीं । भावार्थ-पुरुष केवल स्त्रीका ही उपभोग करता है गाताका नहीं इसीतरह धान्य ही भक्ष्य हैं मांस नहीं । ॥ १० ॥ पंचेंद्रियस्य कस्यापि बधे तन्मांसभक्षणे । यथा हि नरकप्राप्ति न तथा धान्यभोजनात् ॥ अर्थ-किसी भी पंचेंद्रिय प्राणीके मारने अथवा उसके मांस भक्षण करनेसे जैसी नरक आदि दुर्गति मिलती है वैसी दुर्गति अन्नके भोजन करनेसे नहीं होती। धान्यपाके प्राणिवधः परमेकोवशिष्यते । गृहिणां देशयमिनां स तु नात्यंतबाधकः ॥ अर्थ-गेहूं आदि धान्यके पकनेपर केवल एकेंद्रियका ही घात होता है सो एक देशसंयमको धारण करनेवाले गृहस्थोंके लिये वह अत्यंत बाधक नहीं होता, अर्थात् गृहस्थ उसका त्यागी नहीं होता। मांसखादकगति विमृशंतः सस्यभोजनरता इह संतः। प्राप्नुवंति सुरसंपदमुच्चै अँनशासन जुषो गृहिणोऽपि ॥ अर्थ-मांस खानेवालोंके भयंकर परिणामोंको विचारकर अर्थात् मांसका त्यागकर केवल धान्यका भोजन करनेवाले और जैनधर्मकी श्रद्धा रखनेवाले सजन चाहे गृहस्थ ही हों तथापि उन्हें स्वर्गलोककी उत्तम संपत्ति प्राप्त होती है।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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