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________________ ६८ ] दूसरा अध्याय आगे -- जो मांस खाने का संकल्प भी करता है उसकी इच्छा भी करता है उसके दोष तथा उसके त्याग करनेवाले के गुण उदाहरण द्वारा दिखलाते हैं REINLES भ्रमति पिशिताशनाभिध्यानादपि सौरसेनवत्कुगतीः । तद्विरतिरतः सुगतिं श्रयति नरांडबत्खदिरवद्वा ||९|| अर्थ -- जो जीव मांसभक्षण करनेकी इच्छा भी करता है वह सौरसेन राजाके समान नरक आदि अनेक दुर्गतियोंमें अनंतकालतक परिभ्रमण करता है । जब उसकी इच्छा करनेवाला ही दुर्गतियों में परिभ्रमण करता है तो उसे खानेवाला अवश्य ही भ्रमण करेगा अनेक तरहके दुख भोगेगा इसमें कोई संदेह नहीं है तथा जिसप्रकार किसी पूर्वकालमें उज्जैन नगरी में उत्पन्न हुये चंड नामके चांडालने अथवा खदिरसार नामके भीलों के राजाने मांसका त्याग कर सुख पाया था उस प्रकार जिसने मांसभक्षण करना छोड़ दिया है वह प्राणी स्वर्ग आदि सुगतियोंके अनेक सुख भोगता है ॥ ९ ॥ आगे - - गेंहू जो उडद आदि जो मनुष्योंके खाने के अन्न हैं वे भी एकेंद्रिय जीवोंके अंग हैं, जब उनके भक्षण कर ये भक्षयंत्यन्यपलं स्वकीयपलपुष्टये । त एव घातका यन्न वद को भक्षकं विना ॥ अर्थ - जो लोग अपना मांस पुष्ट करनेके लिये दूसरे प्राणियोंका मांस खाते हैं वे ही घातक हैं । यदि वे घातक ( हिंसक ) नहीं है तो कहो उन खानेवालों के विना अन्य कौन हिंसक है ? मांसास्वादन लुब्धस्य देहिनो देहिनं प्रति । हंतुं प्रवर्तते बुद्धिः शाकिन्य इव दुर्धियः || अर्थ - मांसका स्वाद लेनेमें लुब्ध हुये ऐसे कुबुद्धी पुरुषकी बुद्धि शाकनीकी कुबुद्धिके समान अन्य प्राणियोंके मारने में ही प्रवर्त होती है ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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