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________________ ६४] दूसरा अध्याय और उसके पीनेवाले एकपादके समान महा दुखी होते हैं तथा उसके त्याग करनेवाले दोनों तरहकी हिंसासे बचते हैं और वे धूर्तिलकी तरह सुखी होते हैं ॥ ५॥ आगे- जो विशुद्ध आचरणोंका घमंड करते हुये भी मांसभक्षण करते हैं उनको निंद्य ठहराते हुये कहते हैं स्थानेऽनंतु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचिकश्मलाः । श्वादिलालावदप्यधुः शुचिंमन्याः कथं नु तत् ॥६॥ अर्थ-- जो जाति कुल आचार आदिसे मलिन अर्थात् नीच हैं वे लोहू वीर्य आदिसे अपवित्र अथवा विष्टाका कारण आर विष्टास्वरूप होनेसे स्वभावसे ही अपवित्र ऐसे मांसको यदि भक्षण करें तो किसीतरह ठीक भी हो सकता है क्योंकि कदाचित् नीच लोगोंकी ऐसी प्रवृत्ति हो भी सकती है परंतु जो आपको पवित्र मानते हैं आचार विचारसे आत्माको पवित्र मानते हैं ( परंतु वास्तवमें मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओंके खानेसे पवित्र नहीं है ) वे लोग बाज कुत्ता आदि अपवित्र जीवोंकी लार मिले हुये मांसको अथवा बाज कुत्ता आदिजीवोंकी लारके समान अपवित्र मांसको कैसे 'खाते हैं ! क्योंकि यह १ रक्तमात्रप्रवाहेण स्त्री निंद्या जायते स्फुटं । द्विधातुजं पुनमांस पवित्रं जायते कथं ॥ अर्थ-जब स्त्री रक्तके बहनेमात्रसे निंद्य और अपवित्र गिनी जाती है तब दो धातुओंसे उत्पन्न हुआ मांस भला कैसे पवित्र हो सकता है ?
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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