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________________ प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन 74 की गति उपर सीधी लोक के अन्त तक होती है 138। यदि मुक्त जीव को क्रिया नहीं है, फिर भी वह उर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार कुम्हार पहले दण्ड के सहारे से चक को घुमाता है और इसके पश्चात् दण्ड के हटा लेने पर भी चक्र घूमता ही रहता है, उसी प्रकार सूक्ष्म-क्रिय अप्रतिपाति नामक तीसरे शुक्ल ध्यान के समय में आत्म प्रदेशों की अवगाहना को एक तिहाई . हीन करते हुए जीव में क्रिया का जो संस्कार रह जाता है, उसी संस्कारवश वह उर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार अरण्डफल के फूटते ही इसके बीज चिटक कर उपर की ओर जाते हैं, उसी प्रकार कर्म-बंध के टूटने पर मुक्तात्मा उपर की ओर जाता है। जैसे मिट्टी आदि के लेप के भार से मुक्त होते ही तुम्बी जल के अन्दर से तुरन्त उपर आ जाती है, वैसे ही समस्त संग परिग्रह से मुक्त हुआ जीव उपर की ओर जाता है और जिस प्रकार दीपक की शिखा वायु आदि के निमित्त न मिलने पर स्वभाव से उपर की ओर हो जाती है, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी उर्ध्वगमन करता है।39 इस प्रकार वही मुनि मुक्त होकर लोकाग्र भाग में सदा के लिए स्थित होकर जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है। परन्तु जो मुनि सम्यक्दर्शन - ज्ञान- चारित्र सम्पन्न एवं संयमी होते हुए संहनन, आयु, बल, काय, शक्ति सम्पदा और ध्यान की कमी एवं कर्मों के अतिनिविड़ होने के करण स्वार्थ सिद्धि पर्यंत किसी एक विमान में आदरणीय शुद्धि, कान्ति और शरीर का धारक वैमानिक देव होता है 40 और केवल तीन ही भव धारण करके मुक्त हो जाता है 141 | ___ इस प्रकार मुनि-आचार परम उत्कृष्ट है और इसके सम्यक् पालन करने से ही मोक्ष-प्राप्ति संभव है। अतः मुनि को इसका सम्यक् आचरण करना चाहिए ताकि इन्हें परम 'निर्वाण की प्राप्ति हो सके, क्योंकि जीव का परम लक्ष्य ही यही है। गृहस्थाचार : उपासकाध्ययन, श्रावकाचार, सागारथर्मामृत, श्रावकधर्म एंव प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में गृहस्थ के आचार पालन संबंधी नियमों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। श्रावक के पालन करने योग्य बारह व्रत बतलाये गये हैं, जिन्हें समन्तभद्राचार्य ने इसे अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत - तीन भागों में विभक्त किया है। प्रशमरति प्रकरण भी आचार विषयक ग्रन्थ है जिसमें गृहस्थ के संबंध में प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है कि जो व्यक्ति मुनि-मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता है, उनके लिए देश, काल, भाव और शक्ति आदि की परिस्थितियों के अनुसार सुविधा देने वाला सरल मार्ग गृहस्थाचार हैं। परन्तु यह साक्षात् मुक्तिमार्ग न होकर क्रमशः जीव को मुक्ति-प्राप्ति का सहायक कारण है 142। गृहस्थ का स्वरुप : प्रशमरति प्रकरण मे गृहस्थ के स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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