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________________ 48 प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन ये पाँचो द्रव्य पाये जायें, उसे लोकाकाश कहते हैं। लोक के बाहर के आकाश को अलोकाकाश कहते है 1251 लोकाकाश के भेद : इसके तीन भेद है 126- (1) अधोलोक (2) तिर्यग्लोक (मध्यलोक) और (3) उर्ध्वलोक। अथोलोक, मध्यलोक एवं उर्ध्वलोक के क्रमशः सात, अनेक, पन्द्रह भेद है 1271 आकाश द्रव्य 1. लोकाकाश . 2. अलोकाकाश अधोलोक मध्यलोक उर्ध्वलोक इस प्रकार आकाश द्रव्य का विभाग जीवादि द्रव्यों के रहने तथा न रहने के कारण हुआ है । जबकि यह आकाश एक अखण्डस्वरूप अचेतन द्रव्य है । काल द्रव्य : प्रशमरति प्रकरण में काल को एक स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, क्योंकि जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होनेवाली पर्यायों के परिवर्तन का निमित्त कारण कालद्रव्य है। द्रव्य में उत्पाद-व्यय काल सापेक्ष है। काल द्रव्य न स्वयं परिणमित होता है और न अन्य द्रव्य को अन्य रुप से परिणमता है, किन्तु स्वतः नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले द्रव्यों के परिवर्तन में निमित कारण है। काल द्रव्य अस्तित्वान् होने पर भी एक प्रदेशी होने के कारण कायवाला नही कहलाता। अतः काल द्रव्य को अस्तिकाय नहीं माना गया है128 । __ काल द्रव्य में रुपादि गुणों का अभाव है, इसलिए यह अमूर्तिक है 129 | कालाणु एक-एक लोकाकाश के प्रदेशों पर रत्नों की राशि के समान एक-एक स्थित है, ये ध्रुव तथा भिन्न-भिन्न स्वरुप वाले हैं। अतः उनका क्षेत्र एक-एक प्रदेश है। इस प्रकार अन्योन्य प्रदेश से रहित काल के भिन्न-भिन्न अणु संचय के अभाव में पृथक-पृथक होकर लोकाकाश में स्थित है। यह अतीत-अनागत के भेद से अनन्त समयवाला है 130। यह निष्क्रिय एवं अकर्ता31 है। इसका व्यवहार मनुष्य लोक में ही होता है 132 । इसके पारिणामिक भाव होते हैं 133 । काल द्रव्य के परिणाम, वर्तना, परत्व और अपरत्व गुण-उपकार है 134 ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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