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________________ 33 दूसरा अध्याय और बन्थ का अलग हो जाना मोक्ष है। मोक्ष शब्द 'मोक्ष आसने' धातु से बना है, जिसका अर्थ छूटना या नष्ट होना होता है। अतः समस्त कर्मों का समूल आत्यन्तिक उच्छेद होना मोक्ष है 66। मनुष्य गति से ही जीव का मोक्ष होना संभव है। जो जीव मोक्ष प्राप्त करता है, उसे मुक्त जीव कहा जाता है। तब मुक्त जीव शरीर रुपी बन्धन का त्याग कर समस्त कर्मों कों क्षय करता है, तब वह मनुष्य लोक मे नहीं ठहरता है। स्वाभाविक उर्ध्वगति के कारण वह लोक शिखर पर जा विराजता है 67। मुक्त जीव को शारीरिक सुख नहीं होता है, क्योंकि शरीर और मन के सम्बन्ध से शारीरिक एवं मानसिक दुःख होता है। जबकि मुक्त जीव शरीर एवं मन के अभाव के कारण दुःखी नहीं होता है 68 । अतः सिद्ध जीव का सिद्धि सुख स्वतः सिद्ध है । उपर्युक्त विश्लेषण से सिद्ध होता है कि प्रशमति प्रकरण एक सत्य-विषयक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें जीव, अजीव; पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष - 9 तत्वों का सम्यक् निरुपण हुआ है। इस प्रकार तत्व-विषयक यह ग्रन्थ भव्य प्राणियों के लिए बहुपयोगी (ख) द्रव्यस्वरुप - भेद विमर्श : ..भारतीय दर्शन में द्रव्य-चिन्तन एक महत्वपूर्ण विषय है, क्योंकि दर्शन का प्रारम्भ ही द्रव्य चिन्तन से होता है। इसलिए जैन धर्म के पूज्य तीर्थकरों का उपदेश भी द्रव्य स्वरुप मूलक ही रहा है। साथ ही गणथरों एवं आचार्यों ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में किसी न किसी रुप में द्रव्य का विवेचन अवश्य किया है। इसलिए द्रव्य - चिन्तन एक प्रमुख विषय है। सम्पूर्ण जैन वांगमय चार भागों में विभक्त किया गया है जिनमें द्रव्यानुयोग भी एक है। इसका मुख्य विषय तत्व एवं द्रव्य का विवेचन करना है। इस प्रकार द्रव्यानुयोग विषयक - प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नयमसार, तत्वार्थसूत्र, सवार्थ सिद्धि, तत्वार्थाधिगभाष्य, तत्वार्थसार, द्रव्य संग्रह आदि अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें द्रव्य का प्रतिपादन और विश्लेषण विशुद्ध रुप से प्राप्त होता है। प्रशमरति प्रकरण भी द्रव्यानुयोग विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें तत्व एवं द्रव्य दोनों का सम्यक् निरुपण हुआ है। जबकि तत्व का निरुपण पहले ही किया जा चुका है यहाँ द्रव्य स्वरुप-भेद विमर्श प्रस्तुत करना अपेक्षित रह गया है। इसलिए इसका उल्लेख निम्न प्रकार किया जा रहा है : लोक-अलोक के विभाजन का आधार द्रव्य है। छः द्रव्यों के समूह को लोक कहा गया है। इन द्रव्यों को सत् कहा गया है यानी किसी ने इन्हे बनाया नहीं है। ये स्वभाव सिद्ध, अनादि निधन एवम् अनन्यमय हैं। फिर भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से मिल नहीं सकता क्योंकि सभी द्रव्य अपन-अपने स्वभाव में स्थिर रहते हैं। परन्तु ये परस्पर में एक दूसरे को अवकाश देते हैं ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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