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________________ 31 दूसरा अध्याय होता है। अतः कर्मों का आगमन द्वार ही आसव है। · आसव दो प्रकार के हैं- पुण्यासव और पापानव । आगमविहित विधि के अनुसार जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होती है, उससे पुण्य कर्म का आसव होता है। अर्थात् शुद्ध योग से पुण्य कर्म का आगमन होता है। स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति करने से पाप कर्म का आस्रव होता है। अर्थात् अशुद्ध योग से पाप कर्म का आगमन होता है 53 । मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - आसव के कारण हैं। जब मिथ्या दृष्टि जीव के मिथ्या दर्शन का उदय होता है, तब वह कर्मबंध से युक्त होता है। सम्यक् दृष्टि होकर भी जो जीव हिंसा आदि पापों से विरत नहीं होता है, इसके भी कर्मों का आस्रव होता है। सम्यक् दृष्टि और पाँच पापों से विरत होकर भी जो प्रमादी होता है, उसके भी कर्मों का आस्रव होता है। जो जीव निद्रा, विषय, कषाय, विकट एवं विकथा- इन प्रमादों से युक्त होता है, वह भी कर्मबंध से लिप्त हो जाता है। यधपि प्रमाद में ही कषाय का अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी कषाय के अत्यधिक बलवान् होने के कारण कथन अलग से किया गया है। वास्तव में कषाय बलवान है 541 इसलिए राग-द्वेषमयी कषाय को कर्मानव का कारण माना गया है और मिथ्यत्व, अविरति, प्रमाद और योग को राग और द्वेष की सेना माना गया है। अतः राग-द्वेष ही आसव का प्रमुख कारण है 55 । संवर तत्व : ___ आम्नव का विरोधी तत्व संवर है। इसलिए आसव के बाद उसका वर्णन किया गया है जो निम्न प्रकार है : आसव का रुक जाना संवर है। सम्यक्त्व देश एवं महाव्रत, अप्रमाद, मोह तथा कषायहीन शुद्धात्म परिणति तथा मन, वचन, काय के व्यापार की निवृति - ये सब नवीनकों के निरोध के हेतु होने से संवर हैं। अतः आसव का निरोथ ही संवर है 56। संवर जीव के लिए बड़ा ही उपकारी माना गया है, क्योंकि यह मोक्ष का कारण है 57। निर्जरा तत्व : यह भी एक महत्वपूर्ण तत्व है। निर्जरा का अर्थ झड़ना होता है। संवर के आचरण करने से आनेवाले नवीन कर्म रुक तो जाते हैं, पर जब तक पुराने बँधे हुए कर्मों को पृथक नहीं कर दिया जाता है, तब तक आत्मा शुभ या अशुभ भाव प्राप्त करता ही रहता है और इन भावों के कारण नवीन कर्मों का बंधन होता रहता है। उन बंधे हुए कर्मों को आत्मा से अलग कर देना निर्जरा है। इसीलिए संवर से मुक्त जीव के तप उपधान को निर्जरा कहा गया है 581 यहाँ उपधान का अर्थ तकिया होता है। जिस प्रकार तकिया सिर के लिए सुख का कारण होता है, उसी प्रकार तप भी जीव के सुख का कारण है। तप करने से सुख की प्राप्ति होती है और तप को ही उपथान माना गया है।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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