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________________ 12 प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन पाँच भेदों एवं 114-117 वें कारिकाओं में आचार के 9 भेदों का कथन कर 118-119 वें कारिका में बतलाया गया है कि जो साधु शील के अट्ठारह हजार भेदों का पालन करता है, वही कभी भी राग-द्वेष के वशीभूत नहीं होता है। आगे 120 वें का. में पिशाच एवं कुलबधू के रक्षण की कथा सुनकर आत्मा को सर्वथा संयम पालन कर 121 वें कारिका में इन्हें इस लोक-संबंधी भोग के कारणों में अनित्यता का विचार करने का निर्देश किया गया है तथा122 वें में विषय सुख को अनित्य, भयावह, पराधीन बतलाकर प्रशम सुख को नित्य, निर्भय, आत्माधीन मानकर इसमें प्रयत्न करने का सुझाव दिया गया है। 36 8. भावनाधिकार : ___ इस ग्रन्थ का आठवाँ अधिकार भावनाधिकार है। इसके 125 का० में सरल चित्त से इन्द्रिय दमन करना श्रेयस्कर बतलाया गया है। यही कारण है कि प्रशम रागी सरागी की अपेक्षा सहज में ही अनन्त कोटि गुने सुख को प्राप्त कर लेता है और सरागी को इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि दुःख उठाना पड़ता है, परन्तु, वीतरागी को वह दुःख छूता भी नहीं है, क्योंकि वह वेद, कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय आदि पर विजय प्राप्त किये हुए रहता है। 126 इसलिए विषय में सुख की अपेक्षा प्रशमसुख को उत्कृष्ट बतलाया गया है। 127-129 लोक में चिन्ता छोड़ने पर साधु अपना भरण-पोषण कैसे करेगा इसका समाधान कर उल्लेख किया गया है कि लोक-शरीर-वार्ताएँ साधुओं के समीचीन धर्म और चरित्र की प्रवृत्ति में कारण हैं वे दोनों इष्ट हैं इसलिए लोक एंव धर्म विरुद्ध कार्यों को त्यागना हितकर है (132) । इस प्रकार साधु के लिए धर्म अविरुद्ध लोकवार्ता अनुसरणीय है (132) तथा अनुपकारी मनुष्य एवं दोषपूर्ण स्थान सर्वथा त्यागने योग्य है (133)। आगे १३४-१३५वें कारिका में आरोग्य साधु को परिमित आहार, शरीरादिक में निःस्पृहता, संयम का निर्वाह, यात्रा के लिए घाव लेप की तरह, गाड़ी के पहिये के ओंगन तथा पुत्र के माँस की तरह, साँप की भाँति भोजन करने का निर्देश किया गया है तथा १३६-३७वें का० में लकड़ी के समान धैर्यशाली साधु के लिए राग-द्वेष से रहित मन से किया हुआ आहार उपयुक्त माना गया है । १३८वें कारिका में निष्परिग्रही साधु के लिए समीचीन धर्म एवं शरीर रक्षा हेतु भोजनादि आवश्यक बतलाया गया है और १३६ वें में उसी निष्परिग्रहता को स्पष्ट किया गया है। इस तरह १४०-१४१वें का० में साधु को कमल के समान निर्लिप्त और अलंकृत घोड़े के समान अपरिग्रही बतलाया गया है। आगे १४२-१४३वें कारिका में निर्ग्रन्थ, कल्प्य-अकल्प्य के स्वरुप का कथन कर १४४वें कारिका में उसकी पुष्टि करते हुए 145वें कारिका में बतलाया गया है कि भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र, आदि कल्प होने पर भी अकल्प और अकल्प होने पर भी कल्प हो जाती है। ये सब देश काल आदि की अपेक्षा से होती है (146)। इस प्रकार अनेकांतवाद के अनुसार कल्प और अकल्प की विधि बतलाकर मन, वचन और काय योग को वश में करने के लिए संक्षिप्त कथन किया गया है(147)। आगे मोक्षाभिलाषी मुनि को वैराग्य मार्ग में विघ्नकारक इन्द्रियों को वश में
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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