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________________ - 9 प्रथम अध्याय ___ आठवें से 11 वें का० में वैराग्य विषयक यह ग्रन्थ विद्वानों को कैसे सम्मत होगी- इस आशंका का समाधान करते हुए बतलाया है कि इनकी रचना उत्कृष्ट कोटि की नहीं है, फिर भी इन्होंने दयालु प्रकृतिवाले सज्जनों से इस पर अनुग्रह करने का आग्रह किया है, क्योंकि सज्जन पुरुष दयालु प्रकृति के होते हैं और वे दोषमुक्त वचनों में भी सारभूत गुणों को ही ग्रहण करते हैं। वे जिस वस्तु को भी आदर के साथ ग्रहण कर लेते हैं, वह सारहीन होने पर भी पूर्णमासी चन्द्र बिम्ब में स्थित काले मृग की तरह प्रकाशमान हो जाती है। अर्थात् सज्जनों का आश्रय पाकर यह ग्रन्थ भी उसी प्रकार सुन्दर लगेगी, जिस प्रकार बालक की अस्पष्ट बोली माता-पिता को अत्यन्त प्यारी लगती है। ___ 12 वें से 14 वें कारिका में पूर्वाचायों के रचे अनेक ग्रन्थ हैं,फिर भी नये ग्रन्थों का निर्माण क्यों? इसके सामाधान हेतु मंत्र संबंधी दृष्टांत प्रस्तुत कर ग्रन्थकार ने बतलाया है कि तीर्थकरों, गणधरों आदि ने जिन पदार्थों का विवेचन किया है, उनका बार-बार कथन करना भी उनकी पुष्टि ही करता है। इसलिए इसमें पुनरुक्त दोष नहीं है। जिस प्रकार सठेवित औषध को पीड़ा दूर करने के लिए बार-बार प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार राग से उत्पन्न हुई पीड़ा को दूर करनेवाले उपर्युक्त पदों का बार-बार सेवन करना लाभदायक ही है। उक्त बात की पुष्टि में इन्होंने पुनः बतलाया है कि जिस प्रकार विष को दूर करने के लिए एक ही मंत्र का बार-बार जाप करना दोषयुक्त नहीं है, इसी प्रकार रागरुप विष को घातने वाले विशुद्ध अर्थपद का बारम्बार प्रयोग करने में पुनरुक्त दोष नहीं है। 15वें कारिका में उक्त बातों का समर्थन करते हुए बतलाया है कि जिस प्रकार जीवन-यापन के लिए लोग बार-बार एक ही धंधे करते हैं, उसी प्रकार वैराग्य के हेतु का भी चिन्तन करना सर्वदा अपेक्षित है। 16-17वें कारिका में ग्रन्थकार ने वैराग्य भावना को दृढ करने का निर्देश कर उसके पर्यायवाची शब्दों माध्यस्थ, वैराग्य, विरागिता, शान्ति, उपशम, प्रशम, दोषक्षय, और दोष विजय का उल्लेख किया है और राग रहित को विराग कहा है। 18वें कारिका में इच्छा, मूळ, काम, स्नेह, गार्घ्य, ममत्व, अभिलाषा आदि राग के नामान्तर का कथन किया है और 19 वें कारिका में देष के ईर्ष्या, द्वेष, प्रचण्ड आदि-द्वेष संबंधी कारणों पर प्रकाश डालते हुए इन्होंने बतलाया है कि जो राग-द्वेष, मिथ्यात्व, कलुषित बुद्धि, पाँच पापों, कर्ममलों, तीव्र आर्त और रौद्र ध्यान के वशीभूत, कार्य-आकार्य में मूढ़, संक्लेश, विशुद्धि स्वरुप से अनिभज्ञ, आहार, भय, परिग्रह, मैथुन, संज्ञा रुपी कलह में संलग्न, आठ प्रकार के क्लिष्ट कर्मों से प्रभावित तथा सैकड़ों गतियों में जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है, वही आत्मा राग-द्वेष के अधीन होता हुआ कषायवान् है 31 । 2. कषायाधिकार : इस ग्रन्थ का दूसरा अधिकार कषायाधिकार है। इसके 24 से 30वें कारिका में कषायवान् आत्मा की दशा पर प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है कि क्रोथ, मान, माया, लोभ आदि भयंकर अनर्थ हैं जिनके पालन करने से क्रमशः प्रीति का नाश, विनय-घात, विश्वास एवं
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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