SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 115 षष्टम अध्याय प्राकृत भाषा में की, तो उनके उत्तरवर्ती आचार्य स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति, पूज्यपाद, अमितगति, योगेन्द्र आदि ने संस्कृत भाषा में वैराग्य विषयक साहित्य की रचना की है। __ आचार्य उमास्वाति रचित प्रशमरति प्रकरण एक वैराग्य विषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रमुख लक्ष्य भव्य प्राणियों को प्रशमसुख की ओर आकृष्ट करना है। प्रशमरति प्रकरण शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का मूल केन्द्र बिन्दु प्रशम-प्रेम है। यहाँ प्रशमरति प्रकरण के कर्ता ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए बतलाया है कि प्रशमरति दो शब्दों के मेल से बना है - प्रशम और रति। प्रशम का अर्थ - वैराग्य और रति का अर्थ - प्रेम है। इस प्रकार वैराग्य में प्रीति करना प्रशमरति है। माध्यस्थ, वैराग्य, विरागता, शान्ति, उपशम, प्रशम, दोष क्षय, कषाय, विजय - ये सब वैराग्य के पर्यायान्तर हैं। ग्रन्थकार ने राग-द्वेष को ही संसार-परम्परा का जनक माना है और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए वैराग्य मार्गी होना अत्यावश्यक बतलाया हैं क्योंकि प्रशम में रति रखनेवाला गृहस्थ एवं संयमी मुनि ही क्रमशः स्वर्ग एवं मोक्ष फल को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार उक्त विश्लेषण से प्रशमरति प्रकरण नाम की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। अतः वैराग्य विषयक ग्रन्थों में प्रशमरति प्रकरणं को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। प्रशमरति प्रकरण में मुख्यतः जैन दर्शन के नौ तत्वों का सम्यक् निरुपण किया गया है जो इस ग्रन्थ की दार्शनिकता को उजागर करता है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष - ये नौ तत्व हैं। सत्ता, सत्य, सत्, समान्य, द्रव्य, अन्वय, पदार्थ, वस्तु एवं अर्थ - ये सब तत्व के पर्यायान्तर नाम हैं। इसमें उक्त नौ तत्वों के स्वरुप एवं उनके भेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इस प्रकार तत्व विषयक यह ग्रन्थ भव्य प्राणियों के लिए बहुपयोगी है। प्रशमरति प्रकरण एक द्रव्यानुयोग विषयक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें द्रव्य का सम्यक् निरुपण हुआ है और बतलाया गया है कि द्रव्य सत् स्वरुप में स्थित होने के कारण नित्य एवं अविनाशी है। द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-छह भेद बतलाये गये हैं। इसमें द्रव्य के भेदों का विस्तार पूर्वक विश्लेषण किया गया हैं जो अत्यंत ठोस एवं वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है। इसके ग्रन्थकार ने अंत में निर्विवादतः यह सिद्ध कर दिया है कि अशुद्ध द्रव्य हेय है और शुद्ध द्रव्य उपादेय है, क्योंकि शुद्ध द्रव्य अंगीकार करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है जो भारतीय दार्शनिकों का चरम लक्ष्य रहा है। अतः द्रव्यानुयोग विषयक ग्रन्थों में प्रशमरति प्रकरण का प्रमुख स्थान है। प्रशमरति प्रकरण चरणानुयोग मूलक ग्रन्थ है जिसमें आचार सम्बन्धी नियमों का विशद् विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ के कर्ता ने आचार को मुनि एवं श्रावकाचार - दो भागों में वर्गीकृत करके मुनि आचार को सर्वोत्कृष्ट माना है। उन्होंने मुनि के स्वरुप का कथन कर मुनियों के पालन करने योग्य भावना, धर्म एवं व्रतादि आचार संबंधी नियमों का विस्तार
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy