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________________ 111 पंचम अध्याय के मात्र सूक्ष्म लोभ का सद्भाव रह जाता है, उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं। उपशम श्रेणी वाले मुनि के नवम् गुणस्थान के जब समस्त स्थूल कषायों का उपशम हो जाता है तथा क्षपक श्रेणी वाले के समस्त स्थूल कषायों का क्षय हो चुकता है, तब वह दशम गुणस्थान में प्रवेश करता है, उस समय उसके संज्वलन सम्बन्धी सूक्ष्म लोभ का ही उदय शेष रह जाता है। उसी समय उसके सूक्ष्म साम्पराय नाम का चारित्र प्रकट होता है। यह संयम सिर्फ दशम गुणस्थान में ही होता है। यथाख्यात चारित्र : सम्यग्चारित्र का पाँचवा भेद यथाख्यात चारित्र है। इसके स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि चारित्र मोहनीय कर्म के सम्पूर्ण रुप से क्षय अथवा उपशम हो जाने से जो चारित्र प्रकट होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं। यह चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होता है। यह मात्र ग्यारहवें गुणस्थान में होता है, उसे औपशमिक यथाख्यात चारित्र कहा जाता है। और जो चारित्र मोह के क्षय से होता है, उसे क्षायिक यथाख्यात चारित्र कहते हैं। यह बारहवें आदि गुणस्थानों में होता है। यह चारित्र अकषायों को होता है। ___ इस प्रकार उक्त पाँच प्रकार के चारित्र अष्टविध कर्मों के समूह को नष्ट कर डालता है। अतः ये मोक्ष के प्रधान कारण है। उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यम्चारित्र तीनों समष्टि रुप से मोक्ष के हेतु हैं। सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यग्चारित्र भजनीय है। अतः दो रत्नों के होने पर ही सम्यक चारित्र होता है। इस प्रकार रत्व-त्रय ही मोक्ष स्वरुप जैन दार्शनिक मुक्तात्माओं का किसी शक्ति में विलोम होना नहीं मानते है। समस्त मुक्त आत्माओं की स्वतंत्र सत्ता रहती है। मोक्ष में प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य एवं अनन्त सुख से युक्त है इसलिए इस दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, अल्प, बहुत्व की अपेक्षा जो मुक्त आत्माओं में भेद की कल्पना की गयी है, वह सिर्फ व्यवहारनय की अपेक्षा से की गयी है। वास्तव में उनमें भेद करना संभव नहीं है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार आचार्य उमास्वाति ने मोक्ष स्वरुप एवं उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया का सूक्ष्म, तर्क संगत और वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस प्रकार उक्त मोक्ष-प्राप्ति की प्रक्रिया द्वारा ही साधक अपने स्वाभाविक स्वरुप को प्राप्त करता है और चरमलक्ष्य मोक्ष पाकर जन्म-मरण के चक्कर से सर्वदा मुक्त हो जाता है। इस प्रकार मोक्ष स्वरुप-भेद विमर्श अधिकार पूर्ण हुआ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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