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________________ 4 . .4 4 इंद्रश्चैत्यालयं गत्वा वीक्ष्य यज्ञांगसज्जनान् । योगमंडलपूजार्थं परिकर्माचरेदिदम् ॥५२॥ स्नानानुस्नानभागात्तधौतवस्त्रो रहः स्थितः । कृतेर्यापथसंशुद्धिः पर्यकस्थोऽमृतीक्षितः।।५३॥ दहनप्लावने कृत्वा दिव्यस्वांगेषु दिक्षु च । न्यस्य पंचनमस्कारान् प्रयुक्तगुरुमुद्रकः ।।५४॥ व्युत्सृज्यांग पूरकेण व्याप्ताशेषजगत्रयम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्यादिभूषितम् ॥५५॥ अपादाश्रोनं नमद्विश्वं स्फूर्जतं ज्ञानतेजसा ! परमात्मानमात्मानं ध्यायन जम्वापराजितम्॥५६॥ क्षेपण कर कलशोंको उठाना चाहिये । इस प्रकार जलयात्राविधान वर्णन किया ॥ अब ३ जिनयज्ञादि विधियोंको कहते हैं-प्रतिष्ठाचार्य इंद्र चैत्यालयमें जाकर पूजा सामग्री और 2 श्रावकोंको देखकर यागमंडलकी पूजा करनेके लिये इस कहे जानेवाले अंगसंस्कारको करे । ॥ ५२ ॥ पहले तो जलसे स्नान करे; उसके बाद मंत्रस्नान करे; पुनः धुले हुए धोती डुपट्टे || का पहरे। उसके बाद एकांतमें स्थित होकर ईर्यापथशुद्धि करके पद्मासन लगाकर अमृतमंत्रसे , मंत्रित जलको अपने ऊपर छिड़के ॥ ५३॥ आगे कहे जानेवाली दहन प्लावन क्रियाओंको शकरके अपने अंगोंमें और दिशाओंमें पंच नमस्कारका न्यास करके पंचगुरुमुद्राको धारण करे ॥ ५४॥ पूरकवायुसे कायोत्सर्ग करके परमात्माके समान अपना ध्यान करे और नम-10 स्कार मंत्रको जपे। इसप्रकार परिणामोंकी शुद्धिसे पापोंका नाश कर पुण्यात्मा हुआ। १ एते श्लोकाः वसुनंदिसैद्धांतिकाचार्यविरचितप्रतिष्ठासारसंग्रहेपि संति इति तद्रीतिमनुसृत्यात्रापि उद्धृता इति प्रतीयते।
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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