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________________ प्र० सा० ॥ २६ ॥ ness Co यत्सर्वस्वरसाय योगिपत यो प्याशासतें त्यक्षणं तच्छ्रेयो यदनुग्रहश्च वृषमप्यचामि तं तद्गुणम् ॥ १९ ॥ ॐ ह्रीं भेदभावना नियतिनिर्मितां प्रादेशिकीमप्यभेदरूपतां योगविशेषसौष्ठवटंकेन विष्वद्रीचीमुत्कीर्य विश्रांतस्य मंगललोकोत्तमशरणभूतस्य केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्याष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा । | सामोद :.... ....... पूजये जैनधर्मम् ॥ २० ॥ एष व्यासेन पूजाविधिः, समासेनात्र पुनमैगलाद्यर्घान् पृथक् न दयात् ॥ एवमर्हदादीनभ्यर्च्य शरच्चंद्रमरीचिरोचिषतश्चेतसि चिंतयन्ननादिसिद्धमंत्राभिमंत्रित कर्पूर हरिचंदनद्रवाभिलुलितसुरभिशुभ्रपुष्पांज| लिभिरेकविंशतिवारानधिवास्य पूर्णार्घदानेन बहुमानयेत् । मी पंच जिनेन्द्रसिद्धगणभृत सिद्धांत दिसाधवो मांगल्यं भुवनोत्तमाश्च शरणं तद्वज्जिनोक्तो वृषः । अष्ट द्रव्यसे पूजा करे ॥ १९/२० ॥ यह विस्तारसे पूजाविधि कही गई है । यदि संक्षेपमें करना हो तो मंगलादिकके अधैँको जुदा न चढावे । इस प्रकार अर्हतादिकोंको पूजकर निर्मल चंद्रमाकी किरणके समान प्रकाशमान अर्हतका अपने मनमें ध्यानकर ( मेरा आत्मा भी अद्वैत स्वरूप है ऐसा चितवनकर) अनादि सिद्धमंत्र से मंत्रित कपूर मिले हुए घिसे हुए मलयागिरिचंदनसे छांटे गये सुगंधित पुष्पोंकी अंजलि लेकर इक्कीसवार पूर्णार्घ देकर भा०टी० अ० २ ॥ २६ ॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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