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________________ शांतिकर्मोपक्रमाय सरस्तीरे पुष्पांजलिं क्षिपेत् । यत्पद्मामृतलंभनासुमनसां मान्योसि दिक्चंक्रमत् कल्लोलोस सदा यदाश्रितवतां संतापहंतासि यत् । लोके यद्यपि तावतैव वदसे क्षीरोदवत्त्वं जिनस्नानीयेन तथापि तद्वदुदकेनायोसि कासार नः॥३॥ ॐ हीं पद्माकरायाधै निर्वपामीति स्वाहा । वास्तुदेवाद्यभ्रमंत्रा वक्ष्यते । मध्ये दिक्ष्वहतोन्यान् प्रदधदधिविदिक् तांत्रिशो मंगलादीन् संसारात्यक्षणाप्तस्फुटमहिमभरं धर्ममूर्ध्वं शिवानाम् । ||कैंके और आगे कहे जानेवाले यत्पद्मामृत इत्यादि श्लोकको पढकर ॐ ह्रीं बोलकर सरोवर ( तालाव ) को जलसे अर्घ देवे ॥ वास्तुदेवादिके अर्थमंत्र आगे कहेंगे ॥३॥ उस मंडलकी ४ पूर्वादि चार दिशाओंमें सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्व साधुओंका स्थापन करे, विदिशाओंमें 2 मंगल लोकोत्तम शरण इन तीनोंको लिखे, सिद्धोंके ऊपर अत्यंत महिमावाले धर्मको स्थापन करे और आठ पत्रोंपर जयादि आठ देवियोंका स्थापन करे और दश दिशाओं में दश ६ विकस्वामियोंको रक्खे, सोमद्वारपालके ऊपर भागमें सूर्यादि नौग्रह स्थापन करे । वह मंडलचौकोन और चार दरवाजेवाला होना चाहिये ऐसा मंडल कल्याणकारी है। ऐसा कसलन्स
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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