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________________ एतत्सूत्रं हब्धमैतिबदृष्टया ग्रंयार्थाभ्यां धारयन् यः सुधीमान् । निर्मातीन्द्रः कर्म निर्देक्ष्यमाणं सार्हस्थाशाधरैः पूज्यतेसौ ॥ १९१ ॥ इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि सूत्रस्थापनीयो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ अनादि सिद्धांतोंको जानकर इस सूत्ररूप प्रतिष्ठाविधिको रचा है। जो अति बुद्धिमान इस ग्रंथके शब्द और अर्थको धारणकर याजकाचार्य हुआ आगे कहे जानेवाली प्रतिष्ठाविधिको करता है वह इंद्र दानपूजादिकर्मवाले उत्तमगृहस्थपनेको चाहनेवाले सवृहस्थोंसे नमहस्कारादिद्वारा आदरणीय होता है ॥ १९१ ॥ इसप्रकार पंडितवर आशाधरविरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीयनामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें सूत्रस्थापनीय नामा पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥ - - १ दानपूजाप्रतिष्ठाजिनयात्रादिकर्मनिष्ठः सदृहस्थः तस्य भावः कर्म ना ।
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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