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________________ Dear 2 समतीद्रं तमारोप्य द्विपं चैत्यालयं नयेत् । निसिहीत्युच्चरन्नेष तं प्रविश्य जिनेश्वरम् ॥। १२८ ।। । दर्शनस्तोत्रपाठेन त्रिःपरीत्य त्रिरानतः । कृतेर्यापथशुद्धिस्तं श्रुतं सूरिं समर्च्य च ।। १२९ ॥ | साधर्मिकैः परिवृतः सर्वसंघसमक्षतः । जिनाग्रे याजकतया सौधर्मेन्द्रोसि सोधुना ॥ १३० ॥ | इत्युच्चैर्वदता दत्तान् समंत्रान् गुरुणाक्षतान्। स्वीकृत्यांजलिनोपांशु मंत्रमुच्चार्य नामितः१३१ स्वमूर्ध्नि विन्यसेत्सोहं सौधर्मेन्द्रं इति ब्रुवन् । प्रतिपद्येत चाष्टाहं सैकभक्तं सुनिर्मलम् ॥ १३२ ॥ ब्रह्मचर्यं विविक्ते च सुप्यात्सद्भावनारतः । शलाका पुरुषाख्यानध्यानस्वाध्यायभाग्भवेत् १३३ जिनेंद्र देवकी दर्शन स्तुतिपाठ पूर्वक तीन परिक्रमा देवे और तीनवार नमस्कार करे । फिर ईर्यापथशुद्धि करके शास्त्र और आचार्यकी पूजाकर साधर्मियोंकर घिरा हुआ सब संघके आगे जिनेंद्रदेव के सामने पूजकपनेसे इंद्रको ऐसा कहे कि तुम अब सौधर्म इंद्र हो ऐसा ऊंचेस्वर से बोले । उस समय इंद्र भी दीक्षागुरुले दिये गये मंत्रित हुए अक्षतोंको अंजलिमें लेके फिर आप ओं नहीं आदि मंत्र पढके मैं वही सौधर्म इन्द्र हूं ऐसा कहता हुआ उन अक्षतोंको अपने मस्तकपर रखे ॥ १२६ । १२७ । १२८ | १२९ | १३० ॥ | ॥ १३१ ॥ १३२ ॥ वह इंद्र आठदिनतक एकवार भोजन करे, निर्दोष ब्रह्मचर्य पाले और श्रेष्ठ १ औं ह्रींऽई असिआउसा णमो अरहंताणं अनाहतपराक्रमस्ते भवतु ह्रीं नमः स्वाहा । एष मंत्रो गुरुणा प्रयोज्यः । २ इंद्रेण पुनरत्रैव ते स्थाने मे इति प्रयोज्यम् ।
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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