SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरोगाक्षतपात्रोद्धययोषित्साधार्मिकान्वितःोगत्वा गृहं महेंद्रस्य नत्वेदं पौर्तिको वदेत् ।११९।। न्यायेनोपाय॑ संरक्ष्य संवर्ध्याहन्महे धनम् ।विनियुज्य परं श्रेयः प्राप्तुमिच्छामि संप्रति १२० कैतच्च सुमहत्साध्यं क चायं स्वल्पको जनः।तथाप्यत्र यते योग्या यदि स्युः सहकारिणः १२१ योग्यता चासकृद् दृष्टकर्मणां वोत्र गम्यते। किं पराबैंककार्यान् वः प्रत्यन्यद्वाच्यमस्त्यतः१२२|| स्वरूप वर्णन किया । अब इंद्रप्रतिष्ठाकी विधि कहते हैं-प्रतिमा आदिकी प्रतिष्ठा कराने में है धन खर्च करनेवाला यजमान, प्रतिष्ठाके सात आठ दिन वाकी रहनेपर जल्दी आनेवाली शुभ लग्नका निश्चय करके प्रतिष्ठाकी विधि करानेकेलिये शुभ मुहूर्तमें प्रतिष्ठाचार्य-इंद्रके घरको के लिये जावे ॥११८ ॥ उससमय ऐसे ठाठसे जावे कि स्त्रियां तो अक्षत भरे हुए पात्र हाथमें लिये गाती हुई आगे जा रही हों और साथमें साधर्मी भाई हों। इसप्रकार यजमान प्रतिष्ठाचार्य-इंद्रके घर जाके उसे प्रणाम कर ऐसी प्रार्थना (वीनती ) करे॥११९॥|| हे जितेंद्रिय ! मैंने न्यायसे धन पैदाकर इकट्ठा किया है और उसकी अच्छीतरह रक्षा की है|2|| अब मैं उसे अहंतविंब प्रतिष्ठाके उत्सवमें लगाकर उत्तम सुख प्राप्त करना चाहता हूं H॥ १२० ॥ कहां तो महान कठिन यह कार्य और कहां तुच्छ शक्तिवाला मैं, सुमेरु सरसोंका सा फरक है तो भी आप सरीखे योग्य सत्पुरुष सहायक मिल जायगे तो वांछित कार्य अवश्य सिद्ध हो जाइगा ॥ १२१ ॥ आपका कईवार यह प्रतिष्ठाकार्य देखा है १ वापीकूपतडागदेवतागहअन्नपानआराम इत्यादिकं पूर्त तत्र नियुक्तः पौर्तिकः यजमानः ।
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy