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________________ कन्छ द्रव्यं भावमथातिसूक्ष्ममधियन्युक्ता वितर्के स्फुरबर्थव्यंजनमंगगीरपि पृथक्त्वेनापि संक्रामता। कर्माशानव स्थितेन मनसा मोढार्भकोत्साहवत् कुंठेन द्रुमिवाणुशः परशुना छिंदन यतिष्वध्यसि ॥ १२२ ।। क्षुण्णे मोहरिपो भजन्नुरुयथाख्याताधिराज्यश्रियं शुद्धस्वात्मनि निर्विचारविलसत्पूर्वोदितार्थश्रुतः । स्वच्छंदो छळदुत्कलोज्ज्वलचिदानंदैकभावो लसच्छेषारिव्रजवैभवः स्फुटमसि त्वं नाथ निग्रंथराट् ॥ १२३ ॥ विश्वैश्वर्यविघातिघातिदितिजो छेदो गतानंतहक् संविद्वीर्यसुखात्मिकां त्रिजगदाकीणे सदस्या स्थितः । जीवन्मुक्तिमृषींद्रचक्रमहितस्तीर्थ चतुस्त्रिंशता कुर्वाणोतिशयैः पुनात्यपि पशून् संपातिहार्याष्टकैः ॥ १२४ ॥ शावष्टय पाकर सयोगकेवली हुए । उससमय इंद्रने समयसरणकी रचना की। उसी समय : अतिशय आठ प्रतिहार्य तथा प्रर्वोक्त अनंतज्ञानादिचार--इसतरह छचालीस गणा मंडित हुए दिव्यध्वनिद्वारा तिर्यचों आदि जीवोंका कल्याण करते हुए ॥ १२०। १२१।१२२|| १४|१२३ । १२४ ॥ उसके बाद प्रभुने योगोंको रोककर शुक्लभ्यानके बलसे मोक्षअवस्थाके|| 073
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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