SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गेहं विद्युत्कुमार्यो रुचकवरनगाग्रास्पदा द्योतयंते या चाष्टौ जातकर्मा दधति तदनुगास्ताः स्फुरत्वत्र धरन्याः ॥ ३७ ॥ ओं रुचकवरगिरींद्रशिखरनिवासिन्यो विजयादिदेव्यो यथास्वमहत्प्रभुमिहेदानीं परिचरंत्विति | स्वाहा । पीठस्थप्रतिमां सर्वतः कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं विकिरेत् । विजयादिदैवतोपास्तिस्थापनं । दिव्यद्रव्यविशुद्ध एव जवरे यो रत्नवृष्टिं क्षणप्रीतायाः पयसीव पव्यमवसन्मातुः स्वयं शुद्धिमान् । यन्नामापि विशुद्धयेस्ति जगतो ध्यायति यं योगिन स्तस्याप्याकरशुद्धिमेष विधिरित्यातन्वतां देवताः ॥ ३८॥ आकरशुद्धिविधानख्यापनार्थ तीर्थोदकाप्लुतपुष्पाणि प्रतिमोपरि निध्यात् । घंटासिंहासनकजलरुहां निःस्वनैरदेयोने ख़त्वातुल्यजिनजनिमुपेत्योच्चकैः स्वस्वभूत्या । किया। “ दिव्य " इत्यादि श्लोक पढकर आकरशुद्धिकी विधि दिखलनेकोलिए तीर्थ जलसे धोये हुए पुष्पोंको प्रतिमाके ऊपर क्षेपण करे ॥ ३८ ॥ “ घंटा " इत्यादि श्लोक बोलकर इंद्र और यजमान आदिकोंके ऊपर उन अमुक नामवाले इंद्रादि भावोंको स्थापनकेलिए सौधर्म प्रतिष्ठाचार्य पुष्प और अक्षतोंको क्षेपण करे ॥ ३९ ॥ उसके वाद " अयं " C-CGC7
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy