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________________ कन्कन्कन्छन् ओं मरुदेव्यादिनिनेंद्रमातरोत्र सुप्रतिष्ठिता भवंत्विति स्वाहा । जिनमातृस्थापनार्थ भद्रपीठस्योपरि पुष्पांजाल क्षिपेत् । षण्मासान् भुवमेष्यतां नवदिवश्चाजग्मुषामहतां पित्रोः सौधमपीद्धमुत्सृजति या रैदो महेंद्राज्ञया । स्वर्णा गावधुतामरद्रुमफलासारभ्रम कुर्वतीं। व्यक्तुं तामिहर त्नदृष्टिमुचितं मुंचामि पुष्पोच्चयम् ॥ १९ ॥ ओं धनाधिपते अर्हत्पितासौधे रत्नवृष्टिं मुंच मुंचेति स्वाहा । कनकशलाका रत्नपंचकविमिश्रचित्रकुसमांजलिं भद्रपीठस्याग्रतः प्रकिरेत् । रत्नवृष्टिस्थापनं ।। सर्वर्तुकामिवरवस्त्रफलप्रसूनशय्यासनाशनविलेपनमंडनानि । तत्तत्क्रियोपकरणानि तथेप्सितानि तीर्थेमशातुरुपदीकुरुतां धनेशः ॥ २०॥ इत्यादि बोलकर जिनमाताओंकी स्थापनाके लिये सिंहासनके ऊपर पुष्पोंको क्षेपण करै। "षण्मासान्" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर सोंनेकी सलाई पांच तरहके रत्नइनसे मिले हुए पुष्पोंको सिंहासनके आगे वस्खेरै । इस तरह रत्नवर्षाका स्थापन हुआ॥१९॥ “ सर्वर्तु" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर उत्तम कपड़े अंगूठी हार फल पत्र पुष्प आदिको सिंहासनके आगे रखे । इन सब वस्तुओंको शिल्पी ग्रहणकरे ॥२०॥ उसके बाद
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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