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________________ प्रसा० मा०टी० कल्याणैः श्रितभूतभाविसुनयत्रित्वौभयेः पंचभिश्चित्तं वित्तमशेषमोहमथनाद्भासत्यविद्याभिदि । अ०४ प्रत्यग्ज्योतिषि तीर्थकृत्वनियतं निर्बीजयोगे स्फुरद् ध्यात्वार्चा स्थिरचित्क्षणाष्टकपदे यो क्षेत्रबीजाक्षरम् ॥४॥ द्रव्यैः स्वैः सुनयाजितैर्जिनपतेर्विम्बं स्थिरं वा चलं ये निर्माप्य यथागमं सुदृषदाद्यात्मात्मनान्येन वा। लग्ने वाल्गुनि लंभयंति तिलकं पश्यति भक्या च ये ते सर्वेपि महोदयांतमुदयभव्यां लभंतेऽद्भुतम् ॥ ५ ॥ प्रतिष्ठेयनिरूपणा । अथ सकलीकरणम् । अत्रादावनेन मंत्रेण स्वहस्तौ पवित्रयेत् । ओं णमो अरहंताणं णमो केवलिणे सुअंगदेवि पसत्थ हत्थेहिं हुं फट् स्वाहा । हस्तद्वयपवित्रकरणमंत्रः । ततः। भव्यजीव उत्तमपदको पाते हैं ॥३।४।५। यह प्रतिमाका वर्णन हुआ । अब सकलीकरण क्रिया कहते हैं । उसमें पहले “ओं णमो” इत्यादि मंत्रसे अपने हाथ पवित्र करे। उसके वाद सुरभिमुद्रा धारण करके इस आगेकी पवित्र विद्याको सात वार चिंतवन करे। वह विद्या “ओं णमो" से लेकर स्वाहा तक कही है। उसके बाद अंगन्यास करे वह इसप्रकार उन्डन्सलन्डन्न्न्लन्जन है
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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