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________________ प्र०सा० ne प्रदोषैः कटसंरुद्धसमीरायां च तद्भुवि । ओहूं फडित्यस्त्रमंत्रत्रातायामामभाजने ॥ २०॥ भाटी० आमकुंभोर्ध्वगे सर्पिःपूर्णे पूर्वादितःसितामारक्तां पीतां शितिं न्यस्य वर्तिसर्वाः प्रबोध्य ताः २१ । अ० १ अनादिसिद्धमंत्रेण मंत्रयेदाघृतक्षयात् । शुद्धं ज्वलंतीषु शुभं विध्यातीष्वशुभं वदेत्॥२२॥ एवं संगृह्य सद्भूमि सुदिनेऽभ्यर्च्य वास्त्वधः। संशोध्याध्यर्धमंभोश्मप्राग्धरावधि वा तथा २३| पातालवास्तु संपूज्य प्रपूर्याधाप्य तां समाम्।प्रासादं लोकशास्त्रज्ञो दिशः संसाध्य सूत्रयेत् २४ होवे-गढा न भर सके तो खराब-अशुम करनेवाली जमीन समझनी चाहिये ॥ १९॥ सूर्य । छिपनेके वाद चटाईके परकोटेसे हवाको रोककर उस जगहकी ओं हूं फट्' इस कुदालादि अस्त्रमंत्रसे रक्षा करे ॥ २०॥ पुनः उसकी पूर्वादि चारों दिशाओंमें कच्चे मट्टीके 8 चार घड़ रक्खे उनपर कच्चे सरवे घीसे भरे हुए रक्खे उनमें सफेद लाल पीली काली बत्ती पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे डालै फिर सबको जलावै ॥२१॥ जबतक घी रहै तबतक अनादि सिद्धमंत्रसे मंत्रित करै,। वत्तियां साफ जलती हों तो शुभफल कहना और यदि वुझती हुई। मालूम पड़े तो अशुभ फल कहना चाहिये ॥ २२॥ इसप्रकार उत्तम भूमिको तलाशकर शुभ दिनमें उसकी खोदी हुई नींवकी पूजा करके उसे शुद्ध करे । फिर पत्थर वगैरः के दुकटोंसे भरकर पहली भूमिके बराबर करले इस तरह व्यवहार शास्त्रका जाननेवाला दिशाओंको विचार कर जिन भवनका निर्माण करावे ॥२३॥२४॥ न्मन्- O ता ॥३॥ 00०
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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