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________________ जिने यज्ञं करिष्याम इत्यध्यवसिताः किल । जित्वा दिशो जिनानिष्ट्वा निर्द्रता भरतादयः॥७॥ शक्यक्रियेष्टफलतां दृष्ट्राष्टांगनिमित्ततः । स्वशत्तया स्वह्नि पृष्ट्राप्तान प्रारभेत जिनालयम्॥८॥ मुनिगोऽश्वेभभूषाढ्ययोषिच्छत्रादिदर्शनम् । तत्पश्ने वेदपाठाहन्नुत्यादिश्रवणं शुभम् ॥९॥ विमूर्धा हसतीस्तोमः सोहं मध्ये स्थितोऽततः । चतुरोंकारयुक् सव्येतरमायाद्वयावृत्तम् ॥१०॥il और जहांतक होसके जीर्ण जिनमंदिरका उद्धार कराना बहुत उत्तम है ॥ ६॥ जिनेन्द्र देवकी पूजा तो अवश्य करेंगे ऐसा दृढनिश्चय रखनेवाले भरत सगर राम पांडव आदिक बडे २ महाराजा जो पूर्वसमयमें होगये हैं वे भी जिनेन्द्रदेवकी पूजाकरनेसे ही सव दिशाओंको जीतकर अंतमें मोक्षके अविनाशीक सुखको प्राप्त हुए ॥ ७ ॥ अपनी शक्ति और इष्ट सिद्धिको विचार कर तथा पिता माता मंत्रीआदिक सज्जनोंको पूछकर अष्टांग निमित्तके द्वारा शुभतिथि आदि पंचांग शुद्ध लग्नमें जिनमंदिर वनबाना शुरू करे ॥८॥ जिनमंदिरके उद्धार करनके संबंधमें पूंछनेके समय दिगंबर मुनि ( साधु ) वछड़ेवाली गाय वा ! बैल घोडा हाथी सधवा स्त्रीछत्र और आदि शब्दसे चमर ध्वजा सिंहासन दही दूध इत्यादिका देखना तथा वीणाका शब्द जैन शास्त्रोंका पाठ अर्हतको नमस्कार आदि शब्दोंका सुनना शुभ| है ॥ ९ ॥अब कर्णपिशाचिनी यंत्र मंत्रका उद्धार बतलाते हैं,-हकार सकार तीकारके ऊपर विंद रख सकार और हकारके बीचमें तीं अक्षरको लिखे उसके चारों कोनों में चार ओंकार
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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