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________________ ४४४४४४88888888888888888888888 वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । अनन्त धर्मात्मक वस्तु के नित्य या अनित्य किसी भी एक अंश को ग्रहण कर प्रकाशित करना 'नय' कहलाता है। अनेक अपेक्षाओं से नय के अनेक भेद हैं परन्तु सामान्यत: नय के पाँच भेद हैं। श्री उमास्वाति के अनुसार - नैगम - संग्रह - व्यवहारर्जु - सूत्रशब्दाः नयाः । प्रस्तुत सूत्र में पाँच प्रकार के नय वर्णित हैं : १. . नैगमनय २. संग्रहनय ३. व्यवहारनय ४. ऋजुसूत्र नय ५. शब्द नय प्रत्येक के सन्दर्भ में चर्चा इस प्रकार है - १. नैगमनय निगम अर्थात् लोक। लोक- नय नैगम नय कहलाता है । अथवा जो प्रमाणों से ग्रहण करें - वह नैगमनय कहलाता है। नैगमनय सर्ववस्तुओं को सामान्य तथा विशेष दोनों धर्मों से युक्त मानता है। वस्तुत: सामान्य और विशेष अन्योन्याश्रित हैं। २. संग्रहनय प्रत्येक वस्तु में सामान्य ओर विशेष धर्म रहते हैं किन्तु विशेष गौण करके जो सामान्य को प्रधानता प्रदान करता है, उसे संग्रह नय कहते हैं । जैसे- 'भोजन' शब्द कहने से रोटी, दाल 88888888888888 • तेवीस Q
SR No.022355
Book TitleJain Siddhant Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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