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________________ 67 लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) 2. मनुष्य- पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तर्वीप मनुष्यक्षेत्र कहलाते हैं अर्थात् इन १५+३०+५६=१०१ स्थानों में ही मनुष्य की उत्पत्ति होती हैं। ___ पन्द्रह कर्मभूमि के अन्तर्गत ५ भरत, ५ ऐरावत और पाँच महाविदेह क्षेत्र की गणना की जाती है। एक पल्योपम की आयुष्य वाला 'भरत' नामक देव जिस क्षेत्र का अधिष्ठायक है वह भरतक्षेत्र और एक पल्योपम आयुष्य वाला 'ऐरवत' नामक देव जिस क्षेत्र का अधिष्ठायक है वह ऐरवत क्षेत्र' कहलाता है। महाविदेह क्षेत्र का महाविदेह योग्य नाम सभी क्षेत्रों में महान् होने से अथवा महाविदेह नामक अधिष्ठायक देव होने से अथवा महान् शरीर वाले मनुष्य का निवास स्थल होने से रखा गया है। पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु, पाँच हैरण्यवत, पाँच रम्यक्, पाँच हैमवत और पाँच हरिवर्ष ये छह क्षेत्र कुल (६ x ५=३०) अकर्मभूमियां हैं। अकर्मभूमियों का नामकरण क्रमशः इस प्रकार देवकुरु-एक पल्योपम आयुष्य वाले देवकुरु नामक अधिष्ठायक देव का निवास स्थल देवकुरु क्षेत्र कहलाता है। उत्तरकुरु- एक पल्योपम आयुष्य वाले 'उत्तरकुरु' नामक देव का निवास क्षेत्र उत्तरकुरु क्षेत्र कहा जाता है। हैरण्यवत-हिरण्य शब्द का अर्थ सोना और चाँदी दोनों होता है। रुक्मी पर्वत और शिखरीपर्वत रजतमय और सुवर्णमय होता है। इन दोनों पर्वत से सम्बन्धित क्षेत्र हैरण्यवत क्षेत्र कहलाता है।०६ रुक्मी पर्वत और शिखरी पर्वत के मध्य रहने वाले युगलिकों को सुवर्ण की शिलापट्ट देने से भी इस क्षेत्र का नाम हैरण्यवत क्षेत्र रखा गया है, ऐसा अर्थ भी लोकप्रकाशकार करते हैं। रम्यक्- नीलवान पर्वत के उत्तर दिशा और रुक्मी पर्वत के दक्षिण दिशा में विविध जाति के कल्पवृक्ष और सुवर्णमय तथा माणकमय प्रदेश होने से यह क्षेत्र अत्यन्त रम्य लगता है। अतः इस क्षेत्र को 'रम्यक्' क्षेत्र कहते हैं। हैमवंत- युगलिक मनुष्यों को आसनादि के लिए हेम (सुवर्ण) देने से अथवा हैमवंत नामक अधिपति देव का निवास होने से इस क्षेत्र को हैमवंत कहते हैं। हरिवर्ष- महाहिमवंत पर्वत की उत्तर दिशा में पर्यक (पलंग) समान आकार वाला क्षेत्र हरिवर्ष क्षेत्र कहलाता है। इसके दोनों किनारे समुद्र तक पहुँचते हैं।" तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तर्वीप कुल छियासी युगलिकों की भोगभूमि होती है, भोग
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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