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________________ 54 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन जैन दर्शन की धर्म एवं अधर्म नामक अभौतिक और अचेतन द्रव्यों की मान्यता दार्शनिक जगत् में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। जैनाचार्यों ने विश्वव्यवस्था का सुचारु संचालन करने के लिए इन द्रव्यों को आधारभूत स्वीकार किया है, इसे सिद्ध करने में आधुनिक विज्ञान को अभी प्रयत्न करना शेष है। आकाश का भी जो स्वरूप जैनदर्शन में प्रतिपादित है वह महत्त्वपूर्ण है, वैशेषिक आदि दर्शनों की भाँति जैनदर्शन 'शब्दगुणकमाकाशम्' को नहीं मानता। जैनदर्शन के अनुसार शब्द तो स्वयं पुद्गल द्रव्य है वह आकाश का गुण नहीं है। जैन दार्शनिक अवगाहन लक्षण को आकाश का लक्षण प्रतिपादित करते हैं जो सबके लिए व्यावहारिक एवं बुद्धिगम्य है। उपाध्याय विनयविजय ने पुद्गल का ग्रहण-लक्षण देकर उसके वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित किया है। पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य होता है, हाँ वह कभी परमाणु आदि की तरह सूक्ष्म होने पर इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता, किन्तु पुद्गल ही ऐसा द्रव्य है जो इन्द्रिय ग्राह्य बनता है इसलिए उसका ग्रहण लक्षण युक्तिसंगत है। पूरण गलन लक्षण भी पुद्गल को व्याख्यायित करता है, क्योंकि वही एकमात्र ऐसा द्रव्य है जो पूरित एवं विगलित होता है। प्रथम द्वार : जीवों का भेद विचार प्रस्तुत अध्याय में द्रव्यलोक में जीव द्रव्य का विशेष विवेचन अभीष्ट है। उपाध्याय विनयविजय ने लोकप्रकाश ग्रन्थ में ३७ द्वारों से जीव के विविध पक्षों का निरूपण किया है। यहाँ पर उन द्वारों में से १-१० द्वारों के आधार पर शोध प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में तथा शेष द्वारों को आधार बनाकर तृतीय से पंचम अध्याय में विवेचन किया जाएगा। उपाध्याय विनयविजय ने जीवों का विश्लेषणात्मक स्वरूप प्रतिपादित किया है। जिसे वे सैंतीस द्वारों में विभक्त करते हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं- १. भेद २. स्थान ३. पर्याप्ति ४. योनि संख्या ५. कुल संख्या ६. योनियों का संवृतत्व ७. भवस्थिति ८. कायस्थिति ६. देह १०. संस्थान ११. अंगमान १२. समुद्घात १३. गति १४. आगति १५. अनन्तराप्ति १६. समयसिद्धि १७. लेश्या १८. दिगाहार १६. संहनन २०. कषाय २१. संज्ञा २२. इन्द्रिय २३. संज्ञित २४. वेद २५. दृष्टि २६. ज्ञान २७. दर्शन २८. उपयोग २६. आहार ३०. गुण ३१. योग ३२. मान ३३. लघु अल्पबहुत्व ३४. दिगाश्रित अल्पबहुत्व ३५. अन्तर ३६. भवसंवेध ३७. महाअल्पबहुत्व। कोई जीव स्वजातीय जीवों से कैसे समान है और विजातीय जीवों से कैसे भिन्न है, इसका विश्लेषण 'भेदद्वार' में किया गया है। सर्वप्रथम जीवों का वर्गीकरण संसारी और मुक्त रूप से किया गया है। तदनन्तर भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से संसारी जीवों के अनेक वर्गों का कथन प्राप्त होता है। लोकप्रकाशकार ने भी संसारी जीवों के दो, तीन, चार से लेकर बाईस भेदों का उल्लेख किया है।"
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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