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________________ उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बना है। उन्हें मात्र आगमों का ही नहीं उनकी टीकाओं, वृत्तियों, भाष्यों, चूर्णियों, अवचूरियों, नियुक्तियों, टब्बों आदि का भी ज्ञान था। वे एक अधिकारिक जैन विद्वान् के रूप में आगमिक परम्परा को अपनी कृति में निरूपित करते हैं। आगम एवं उसके व्याख्या साहित्य के अतिरिक्त उन्हें सिद्धसेन, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि आदि की कृतियों का भी पूर्ण बोध था। वे आगमिक सरणि के तलस्पर्शी विद्वान् थे। इसकी प्रतीति उनकी इस विशालकाय कृति का अवलोकन करने पर पदे-पदे होती है। 'लोकप्रकाश' का परिचयात्मक चार्ट सर्ग | श्लोक | उद्धृत| प्रमुख विवेच्य विषय श्लोक गाथा द्रव्यलोक । २१४ २५ मंगलाचरण एवं ग्रन्थ लेखन की भूमिका, उत्सेधांगुलादि का प्रमाण, रज्जु, पल्योपम सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, क्षेत्र पल्योपम, | सागरोपम (सूक्ष्म बादर), संख्यात-असंख्यात और अनन्त आदि। दूसरा । १६२ |३६ चतुर्विध लोक का स्वरूप, द्रव्यलोक, षड्द्रव्यमय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय का स्वरूप, जीव का सामान्य लक्षण, भेद, सिद्ध का स्वरूप, सिद्धि प्राप्ति की | योग्यता, अल्प-बहुत्व, अनन्त सुख आदि। १४१८ | २१७ | संसारी जीवों का स्वरूप, ३७ द्वारों के नाम, जीव का भेद, स्थान, | पर्याप्ति, योनि, मनुष्य योनि का स्वरूप तथा प्रकार, कुलकोटि, भवस्थिति, कायस्थिति, आयुष्य, शरीर, अंगमान (अवगाहना), संस्थान, समुद्घात, गति-आगति, लेश्या, आहार की दिशा, संहनन, कषाय, संज्ञा, इन्द्रिय, वेद, संज्ञी, दृष्टि, ज्ञान, दर्शन, | उपयोग, आहार, गुणस्थान, योग, जीवों का प्रमाण, स्वजाति की | अपेक्षा से अल्प-बहुत्व, दिशा की अपेक्षा से अल्प-बहुत्व, स्व जाति | में उत्पन्न जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर, महान् अल्पबहुत्व, भवसंवेध। चतुर्थ । १६३ २० | संसारी जीवों के विविध विवक्षाओं से प्रकार, एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, निगोद, व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि का स्वरूप, | एकेन्द्रिय जीव का स्थान आदि ३७ द्वारों से निरूपण।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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