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________________ 32 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन २५२ वें श्लोक में विजयानन्दसूरि का नामोल्लेख किया गया है। (3) शान्तसुधारस- साहित्यिक दृष्टि से यह गीतिकाव्य के अन्तर्गत समाविष्ट होता है। गीतगोविन्द की भांति यह भी गेय है। इसका परिचय दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत दे दिया गया है तथापि साहित्यिक वैशिष्ट्य के कारण इसका यहाँ नामोल्लेख किया जा रहा है। अनित्य, अशरण आदि सोलह भावनाओं का यह वर्णन विभिन्न रागों के साथ प्रस्तुत किया गया है। वर्गों का प्रयोग भी भावों के अनुरूप है तथा माधुर्य गुण एवं प्रसाद गुण की छटा सर्वत्र दिखाई पड़ती है। श्लोकों का प्रयोग शार्दूलविक्रीड़ित छन्दों के साथ भी हुआ है तो स्वागता, इन्द्रवज्रा, उपजाति, भुजंगप्रयात आदि छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं। धर्म का प्रभाव निरूपित करते हुए ल, घ एवं ध वर्गों का प्रयोग द्रष्टव्य है उल्लोकल्लोलकलाविलासै प्लावयत्यम्बुनिधिःक्षितिं यत्। न घ्नन्ति यद् व्याघ्रमरुद्दवाद्याः, धर्मस्य सर्वोऽप्यनुभाव एषः ।।* शरीर की अशुचिता की तुलना मदिरा के घड़े से करते हुए कहा गया है सच्छिद्रो मदिराघटः परिगलत्तल्लेशसंगाऽशुचिः, शुच्याऽऽमृद्य मृदा बहिः स बहुशो धौतोऽपि गंगोदकैः । नाधत्ते शुचितां यथा तनुभृतां कायो निकायो महान्, बीभत्साऽस्थिपुरीषमूत्ररजसां नाऽयं तथा शुद्धयति।।" (4) विजयदेवसूरि विज्ञप्ति- यह रचना प्रभासपाटण से प्राकृत भाषा में मिश्रित रूप से विज्ञप्ति पत्र के रूप में लिखी गई है। इसमें अणहिलपुर पाटण में विराजित विजयदेवसूरि को सम्बोधित किया गया है। यह रचना अप्राप्त है तथा इसके सम्बन्ध में अधिक जानकारी भी नहीं मिलती है। इसका गुजराती भावानुवाद भी हुआ है। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। (5) विजयदेवसूरि लेख- गुजराती भाषा में ३४ कड़ियों में विनयविजयगणी ने स्तम्भतीर्थ से लिखा था। यह चार ढालों में विभक्त है तथा विजयसेनसूरि को लक्ष्य कर लिखा गया है। इसमें विजयदेवसूरि को जिनशासन का शृंगार कहा गया है। यह कृति यशोविजय जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत विक्रम संवत् १९७३ में ऐतिहासिक ग्रन्थमाला भाग १ में प्रकाशित है। 9. दार्शनिक साहित्य - उपाध्याय विनयविजय गणी जैन धर्म-दर्शन की मान्यताओं को हृदयंगम कर उन्हें प्रस्तुत करने में दक्ष थे। वे आगम एवं आगमेतर जैन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। दार्शनिक दृष्टि से उनकी प्रमुखतः चार रचनाएँ उपलब्ध होती हैं- १.लोकप्रकाश २. नयकर्णिका ३. पंच समवाय स्तवन ४. षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह संक्षेप। (1) लोकप्रकाश-प्रस्तुत कृति इस रचना का ही समीक्षात्मक अध्ययन है। अतः इसका विस्तृत
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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