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________________ 28 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन जाकर जिनप्रतिमा के दर्शन की ओर आकर्षित करने के लिए फलप्राप्ति का निर्देश किया गया है। फलप्राप्ति उपवास के फल से आंकी गई है। (2) सीमंधर स्वामी नुं चैत्यवंदन- महाविदेह क्षेत्र में विचरणशील बीस विहरमानों में श्री सीमंधर स्वामी को वंदन के रूप में इस कृति का प्रारम्भ "श्री सीमंधर वीतराग त्रिभुवन तुमे उपगारी" पंक्ति से हुआ है। गुजराती भाषा में निर्मित इस चैत्यवंदन में मात्र तीन कड़ियाँ हैं। जिसमें सीमंधर स्वामी का परिचय दिया गया है। 8. संस्कृत दूत काव्य, गीति काव्य एवं विज्ञप्ति लेख महान वैयाकरण उपाध्याय विनयविजय ने साहित्यिक रचनाओं का उत्कृष्ट निदर्शन प्रस्तुत किया है। उन्होंने दूतकाव्य, गीतिकाव्य एवं विज्ञप्ति लेखों की विधा में अपनी प्रतिभा को प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से उनकी सात रचनाएँ हैं- १. इन्दुदूत २. आनन्दलेख ३. शान्तसुधारस ४. विजयदेवसूरि लेख ५. विजयदेवसूरि विज्ञप्ति प्रथम एवं द्वितीय। (1) इन्दुदूत- महाकवि कालिदास के मेघदूत का अनुकरण करते हुए उन्होंने चन्द्रमा को दूत बनाकर अपना संदेश अपने संघ के आचार्य श्री विजयप्रभसूरि को प्रेषित किया है। यह १३१ श्लोकों में मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है। इसकी विशेषता यह है कि यह स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक भाव प्रेषण का काव्य है। यह समस्यापूर्ति के रूप में निबद्ध नहीं है। कालिदास का 'मेघदूत' ही नहीं जैन कवि विरचित 'पार्वाभ्युदय' भी इस सरणि का प्रमुख ग्रन्थ है। उपाध्याय विनयविजय विरचित इन्दुदूत में मार्ग का निरूपण कालिदास के मेघदूत की भांति किया गया है। चन्द्रमा को उदित हुआ देखकर कवि का मन उल्लसित होता है तथा उसका स्वागत करते हुए कवि उसे अपने संदेश का माध्यम स्वीकार करता है। कवि ने इस काव्य की रचना जोधपुर नगर में वर्षावास करते हुए विक्रम संवत् १७१८ में की थी। अतः इसमें जोधपुर नगर का विस्तार से छह श्लोकों में वर्णन किया गया है। इसी के अनन्तर चन्द्रमा के आगम का एवं चन्द्र दर्शन का निरूपण है। कवि उसे अपनी भावना अपने आचार्य तक पहुँचाने के लिए निवेदन करता हुआ कहता है श्रुत्वा याच्यां मम हिमरूचे! न प्रमादो विधेयो, नो वावज्ञाऽभ्यधिकविभवोन्मत्तचित्तेन कार्या। प्रेमालापैःश्चतुस्वनितानिर्मितैर्विस्मृतिर्न, प्राप्या प्रायः प्रथितयशसः प्रार्थना भंगभीताः ।। ___ कवि यहाँ हिमरुचि चन्द्रमा से स्पष्ट निवेदन करता है कि मेरी याचना सुनकर तुम्हें प्रमाद नहीं करना है। अधिक वैभव से उन्मत्त चित्त के कारण मेरी इस याचना की अवज्ञा नहीं करनी है। चतुर वनिताओं के द्वारा किए गए प्रेमालापों से प्रभावित होकर मेरी याचना को नहीं भूलना है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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