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________________ काललोक 341 द्विधोपमेयं स्यात्पल्यसागरभेदतः।५२ पल्योपम- एक योजन प्रमाण लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊँचा तथा ३.१/६ योजन प्रमाण परिधि वाला कुआँ अथवा क्षेत्र ‘पल्य' कहलाता है। यह पल्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन उत्कृष्ट सात दिन के उगे हुए करोड़ बालों से ठसाठस भर जाए। यह ठसाठस भरा पल्य इस तरह से बन्द हो कि ये बाल अग्नि से न जलें, वायु से न उड़े, पानी से न गलें, नष्ट न हों और न हीं सड़ें हो। उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष बीतने पर एक-एक बाल को निकाला जाए तो निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य रिक्त होता है, निर्मल होता है एवं विशुद्ध होता है उतना काल पल्योपम कहलाता है। - इस तरह दस कोटाकोटि पल्योपम प्रमाण जितना एक सागरोपम प्रमाण काल होता है।५३ पल्योपम और सागरोपम प्रमाण काल से नैरयिक, तियंचयोनिक, मनुष्य और देवों का आयुष्य मापा जाता है।" बीस कोटाकोटि सागरोपम काल समुदाय से अढ़ाई द्वीप का एक कालचक्र पूर्ण होता है। एक कालचक्र में दस-दस कोटाकोटि सागरोपम के अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक दो अर्द्धकालचक्र पूर्ण होते हैं। एक कालचक्र की पूर्णता में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के छह-छह आरे कुल बारह आरे पूर्ण होते हैं। जिस कालचक्र में सभी शुभ भाव अनुक्रम से प्रत्येक क्षण क्षीण होते जाते हैं और अशुभ भावों में वृद्धि होती है वह अवसर्पिणी काल कहा जाता है। इसके विपरीत व्यवस्था वाला कालचक्र उत्सर्पिणी कहलाता है अर्थात् जिस काल में प्रतिक्षण शुभ भावों की वृद्धि होती है और अशुभ भाव क्षीण होते हैं, वह उत्सर्पिणी काल" है। __ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र के आरों के नाम और प्रमाणों का उल्लेख चित्रण से स्पष्ट है
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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